धिक्कार ऐसी सरकार को, जहां हल्की बारिश में पांच साल की बच्ची नाले में बह कर दम तोड़ देती है
पांच साल रघुवर सरकार को होने जा रहे हैं, ये सरकार बहुत बड़े-बड़े काम किये है, आलीशान विधानसभा भवन, न्यायालय भवन एवं प्रेस क्लब बनाये हैं, जमकर इन सब का ढोल पीटा जा रहा हैं, लोग खूब भाजपा के झंडे उड़ा रहे हैं, पर पांच साल की छोटी सी बच्ची फलक आज ट्यूशन से लौट रही थी, उसे क्या पता था कि सरकार ने उसके लिए एक अच्छी सी सड़क जिस पर वो चलकर अपने घर और ट्यूशन के लिए आया जाया करें, उसके लिए कोई प्रबंध ही नहीं की।
आज फलक घर से ट्यूशन के लिए चली थी, और लीजिये ट्यूशन से जब घर लौटने के लिए निकली तो वो घर न जाकर, नाले में गिर पड़ी और उसकी लाश चुटिया के स्वर्णरेखा नदी के तट पर जाकर मिली, आखिर पांच साल की इस छोटी सी फलक को किसने मारा? बारिश ने, नाले ने, नगर निगम ने, स्थानीय प्रशासन ने या उस रघुवर सरकार ने, जिसने विकास का मतलब ही बदल दिया है।
फलक के लिए विकास का मतलब क्या था, विधानसभा भवन, न्यायालय भवन, प्रेस क्लब या एक छोटी सी सड़क, नाले पर एक छोटा सा स्लैब ताकि उसके पांव नाले में न जा सकें, हल्की बारिश से भी बच्चों को बचाने का वो प्रबंध, जिसकी व्यवस्था कम से कम नगर निगम या नगर विकास विभाग तो कर ही सकता है, जिसकी जिम्मेवारी उस पर हैं, पर सच्चाई यहीं है कि जिसका जो काम है, वह सही ढंग से नहीं करता।
फलक दुनिया में नहीं है, पर उसने कुछ सवाल छोड़े हैं, पूछा है अपने रहनुमाओं से उसका कसूर क्या था? क्यों उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया था? नाले पर स्लैब बनाकर ढंकने का काम किसका था? वो जब दुर्घटना का शिकार हुई तो उसे बचाने का काम किसका था, आखिर उसे बचाने के लिए स्थानीय प्रशासन के लोग आगे क्यों नही आये और अंत में जिसका जो काम था, उसने क्यों नहीं किया?
फिलहाल, संयोग ही है कि राज्य में विधानसभा का मानसून सत्र चल रहा है, क्या विपक्षी दल या सत्तारुढ़ दल के लोग सदन में ये मुद्दा उठायेंगे, पूछेंगे सरकार से की फलक की मौत का जिम्मेदार कौन है, आखिर फलक को किसने मार डाला? ज्ञातव्य है कि पांच साल की हिंदपीढ़ी नाला रोड की बच्ची फलक आज हल्की बारिश के दौरान बह रहे नाले को समझ नहीं पाई और उसके पांव नाले में ससरते हुए चले गये और फिर वह नाले में बह गई।
एक ने उसे बचाने की कोशिश की, पर बचाने के क्रम में फलक का बैग हाथ में आया और फिर उसकी लाश चुटिया के स्वर्ण रेखा के तट पर जाकर मिली। कमाल यह भी है कि फलक के डूबने के बाद उसकी लाश को ढुंढने में तीन घंटे लग गये और उसकी लाश को भी स्थानीय प्रशासन के लोगों ने नहीं ढुंढा, उन युवकों ने ढुंढा जिन्होंने नाले को नाला नहीं समझा, सिर्फ यह देखा कि फलक जैसी भी जल्द से जल्द बच जाये, पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।