अपनी बात

मित्रता दिवस पर विशेषः कहां चले गये मेरे बचपन के मित्र सुनील, अभी तो जाने का समय नहीं था

आज मित्रता दिवस है। दुर्भाग्य देखिये कि पिछले वर्ष हमने प्रिय मित्र अरुण श्रीवास्तव को खो दिया और इस वर्ष अपने बचपन के साथी सुनील को खो दिया। सुनील लंबे अर्से से विभिन्न बिमारियों से ग्रसित था और इस वर्ष कुछ दिन पहले उसने अंतिम सांस ली। हम दोनों सिपाही भगत मिड्ल स्कूल नया टोला में एक साथ पढ़ते थे। एक ही मुहल्ले में रहते थे। जब भी वो स्कूल जाता, तो बिना मुझे लिये नहीं जाता, क्योंकि जब वह घर से निकलता तो मेरा घर स्कूल जाने के रास्ते में ही पड़ता।

सिपाही भगत मिड्ल स्कूल नया टोला में नाम लिखाने की घटना मुझे आज भी याद हैं। अपने ही मुहल्ले में छोटे लाल यादव नामक एक शिक्षक हुआ करते थे, जिनके यहां सुनील ट्यूशन पढ़ने आया करता था। बाद में, मैं भी वहां ट्यूशन पढ़ने गया। अचानक सुनील ने कहा कि मैं दूसरे स्कूल यानी जनकधारी उच्च विद्यालय में क्यों पढ़ता हूं, क्यों नहीं? मैं भी उसके साथ सिपाही भगत मिड्ल स्कूल में पढ़ू, उसने तुरन्त छोटे लाल यादव मास्टर साहेब को कहा कि मेरा भी नाम सिपाही भगत मिड्ल स्कूल में लिखा दें।

छोटे लाल यादव मास्टर साहेब बिना मेरे माता-पिता के अनुमति के ही मेरा नाम अपने विद्यालय में लिखवा दिये। दरअसल उस वक्त शिक्षा का माहौल इस स्तर का था कि माता-पिता, अभिभावक अपने शिक्षकों को खुली छूट दे दिया करते थे कि वे अपने छात्र को जैसे भी भविष्य गढ़ना चाहे, गढ़े। ये 1975 की बात है, जब पटना में बाढ़ आई थी और उस बाढ़ से पूरा पटना प्रभावित था, स्थिति ऐसी थी कि बाढ़ का पानी हमारे घर के अंदर घुस गया था।

पूरा इलाका जलप्रलय के समान दिख रहा था, लोगों की प्राथमिकता अपनी जान बचाने की थी, चूंकि हमलोगों का घर का नीचले इलाके में था, इसलिए हमलोगों के तरफ जितने भी मिट्टी के मकान थे, एक-एक कर ढह गये थे। उस वक्त मेरी उम्र मात्र आठ साल थी। धीरे-धीरे पानी कम हुआ। स्कूल खुले। स्कूल की स्थिति ठीक नहीं थी।

पूरा क्लास मिट्टी व दलदल से भरा था, टेबल-कुर्सियों पर पंकीले मिट्टियों ने कब्जा कर लिया था, फिर भी जैसे-तैसे स्कूल ठीक किये गये। स्कूल खुला। हम सभी मित्र मिले और 1976 में जब स्कूल में हिन्दी के किताब में परिवर्तन हुए, तो उस पुस्तक में एक आलेख था – ‘पटना में बाढ़ संकट का सामना’। उस दौरान हम सभी मित्रों की नजर उसी आलेख पर अधिक टिकी हुई थी।

सुनील और मैं एक साथ आगे की टेबल पर बैठते, खुब जमकर बाते होती, स्कूली दोस्तों में ही क्लास में दो ग्रुप बन जाता और हर प्रकार के खेल चालूं, कौन अमीर है या कौन गरीब, कौन किस जाति का हैं या किस धर्म का भला वहां पता ही नहीं चलता। जब संगीत का क्लास होता तो सुनील के मुख से ये गीत जरुर निकलता – ‘जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है, इसके वास्ते है, तन है, मन है और प्राण है, जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है…’ और मेरे मुख से ‘जय संतोषी मां’ फिल्म के सारे गाने निकल पड़ते।

ये वह समय था, जब ‘जय संतोषी मां’ फिल्म की धूम थी। कौन ऐसा घर था, जिसके यहां के लोग ये फिल्म न देखे हो। दानापुर जैसे छोटे से शहर में भी यह फिल्म कई हफ्तों तक चलती रही। स्कूल की हिन्दी की शिक्षिका सीता सिन्हा हम दोनों से गाना जरुर गवांती और बड़े प्यार से माथे पर अपना हाथ रखकर आशीर्वाद देती। हम दोनों भी जब स्कूल आते, तो हमदोनों की आंखें सीता सिन्हा को ढूंढती रहती, वो जब स्कूल नहीं आती तो हम दोनों का मन ही नहीं लगता, पर जब वो आती तो हमलोग उछल जाते। स्थिति ऐसी होती कि जब क्लास में उचित शिक्षक नहीं होते तो हमलोगों शिक्षक रुम से सीता सिन्हा को ही बुलाते और फिर शुरु होता पढ़ाई से लेकर संगीत तक का सफर। आज भी जब मैं उदास होता हूं तो उस पल को यादकर फिर से प्रसन्न होने की कोशिश करता हूं।

सुनील की बड़ी दीदी, जिन्हें हम रेणु दीदी कहते। हम उनसे कहते कि दीदी हमें चिमकी चाहिये। दरअसल चिमकी चमकनेवाली एक पतली सी कागज हुआ करती थी, जो चाय की पत्तियों वाले बड़े-बड़े डब्बों से निकला करती। शायद चाय को तरोताजा बनाये रखने के लिए कंपनिया प्रयोग किया करती हो। पर हमलोग तो उन चिमकियों को अपने बटन में लगाकर खुश होते और कहते कि ये बटन चांदी के हैं।

बचपन जो ठहरा। उसी में मस्त रहते। सुनील का पूरा परिवार, हमें नाम से कभी नहीं पुकारता। सभी कहते, सुनील देखो पंडित जी आये हैं। सुनील की मां जो आज भी जीवित है। पहले और अब भी  कोई अन्तर नहीं आया। आज भी उसी प्रकार प्यार लूटाती है। बिना चाय पिलाये तो वो आने ही नहीं देती। आज भी सुनील के यहां जो चाय बनती हैं, शायद वो और किसी के यहां बनती हो, वो चाय की खुश्बू वो ताजगी, मुझे कही नहीं मिला।

सुनील के साथ मित्रता ही थी, जो उसके पूरे परिवार से हमें जोड़ रखी थी। आज भी सुनील के बड़े भैया, उसी प्रकार से स्नेह देते हैं, जैसे सुनील को देते थे। आज सुनील दुनिया में नहीं हैं, मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा। सुनील के निधन की खबर मेरे छोटे भाई ने मुझे दी थी। तब से लेकर आज तक मैं बेचैन हूं। वो इसलिये कि सुनील की जाने की उम्र न थी। अभी तो उसके उम्र के बहुत सारे लोग ठीक-ठाक है।

इतना अच्छा इन्सान, जो कभी किसी से लड़ा नहीं, हमेशा मुस्कुराकर सभी की खबर लेनेवाला सुनील, आज दुनिया में नहीं हैं। शायद ईश्वर को भी ऐसे लोगों की तलाश होती हैं, तभी तो पिछले साल अरुण श्रीवास्तव और इस साल सुनील को हमसे छिन लिया। सुनील तुम इस दुनिया में भले ही न हो, पर जहां भी हो, प्रसन्न रहो। ईश्वर से कामना है। कोशिश करेंगे कि अगले जन्म में हम फिर साथ हो।