गुरु पूर्णिमा पर विशेषः अगर गुरु श्रीयुक्तेश्वर गिरि हो और शिष्य परमहंस योगानन्द जी हो तो फिर क्या कहने, जीवन ही धन्य धन्य हो जायेगा
कल गुरु पूर्णिमा है। कल का दिन यानी आषाढ़ पूर्णिमा अर्थात् गुरु पूर्णिमा उन शिष्यों के लिए खास महत्व रखता है, जो अपने गुरूओं में ईश्वर को देखते हैं। कल का दिन उन गुरुओं के लिए भी विशेष महत्व का होता हैं जो अपने शिष्यों में ध्रुव, प्रह्लाद को देख लेते हैं तथा अपने शिष्यों को नित्य नवीन आनन्द को पाने अर्थात् सच्चिदानन्द परम पिता परमेश्वर तक ले जाने के लिए अपनी पूरी शक्ति व उर्जा को बिना किन्तु परन्तु किये लगा देते हैं।
अब सवाल उठता है कि वर्तमान समय में ऐसे कितने गुरु भारत में बचे हैं अथवा शिष्य हैं। जिनमें इस प्रकार के भाव विद्यमान हैं। क्या आज का शिष्य अपने गुरु में ईश्वर को देखता है या देखने की कोशिश करता है? क्या आज का गुरु अपने शिष्यों में ध्रुव व प्रह्लाद अथवा श्रीकृष्ण ने जैसे अर्जुन को अपनाया, उस प्रकार से अपने शिष्य को अर्जुन की भांति उद्धार करने की क्षमता रखता हैं। मैं यह सवाल आपके उपर छोड़ता हूं। चिन्तन करियेगा। अगर समय मिले तो।
तुलसी के श्रीरामचरितमानस के बालकांड में गुरु महिमा का उल्लेख है। तुलसी ने गुरु की तुलना तो भगवान शंकर से कर दी है। जरा देखिये, तुलसी क्या कह रहे हैं…
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररुपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोSपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।
ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की वन्दना हमेशा करनी चाहिए, जिनकी कृपा प्राप्त हो जाने से टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दनीय होता है। तुलसी तो गुरु की महिमा बताने के क्रम में यह भी कहते हैं…
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।
उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना, जो कृपा के समुद्र और नररूप में श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं। तुलसी के ही शब्दों में…
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिअ मूरिमय चूर चारू। समन सकल भव रज परिवारू।।
गुरु के चरणकमलों के रज की वन्दना हमेशा करनी चाहिए क्योंकि वो सुरुचि, सुंगधित व अनुरागरूपी रस से परिपूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुन्दर चूर्ण है, जो संपूर्ण भवरोगों के परिवार को नाश करनेवाला है। जब मैं छठी कक्षा में था तो अपने संस्कृत के पाठ्य पुस्तक में एक श्लोक को पढ़ा। श्लोक था –
गुर्रुब्रह्मा गुर्रुविष्णु गुर्रुदेवो महेश्वरः।
गुर्रु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
उस वक्त मुझे एक शिक्षक ने इसका अर्थ यह कहकर बताया था कि गुरु ही ब्रह्मा है। गुरु ही विष्णु है। गुरु ही शंकर है। गुरु साक्षात परब्रह्म के समान है, इसलिए गुरु को बारम्बार नमस्कार है। पर मेरा मन इस श्लोक का अर्थ इस रुप में मानने को कभी तैयार नहीं हुआ, क्योंकि जिस भी स्कूलों व कॉलेजों से मैं गुजरा। उन स्कूलों व कॉलेजों में इतने उच्चकोटि के विचारों के शिक्षक हमें नहीं दिखाई पड़े, जिन्हें मैं ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के समान समझकर उनको प्रणाम कर सकूं।
लेकिन जैसे-जैसे मेरा मन इस श्लोक को भेदना शुरु किया तो इसका अर्थ मुझे यह समझ में आया कि गुरु को ब्रह्मा के सदृश होना चाहिए जो अपने शिष्य की रचना कर सकें, जो विष्णु के समान उसका पालन पोषण करने की क्षमता रखता हो तथा जो शंकर के समान शिष्य के अंदर छुपी अथवा पनपनेवाली नाना प्रकार की बुराइयों को भष्मीभूत कर दें। अगर ये तीनों क्षमता किसी शिक्षक या गुरु में विद्यमान हैं तो वहीं साक्षात परब्रह्म के समान है, ऐसे ही गुरु नमन है।
न कि 30 दिन, 31 दिन, 28 या 29 दिन पढ़ाने के बाद अपना मासिक मजदूरी लेनेवाले शिक्षक, जिनको सिर्फ अपने वेतन व पेंशन से मतलब हो। जो अपने विद्यार्थियों से कोई मतलब ही न रखते हो। पढ़ा तो पढ़ा, नहीं तो शिष्य भाड़ में जाय, जहां ऐसी सोच है, वहां गुरु कहां और शिष्य कहां? वहां तो ग्राहक व दुकानदार यानी मार्केंटिंग का भाव ही पनपेगा, जो सिर्फ अपना भला देखता है।
मतलब जैसे ग्राहक को दुकानदार से कोई मतलब नहीं और न दुकानदार को ग्राहक से। ग्राहक ने पैसा दिया माल खरीदा और चलता बना। दुकानदार ने पैसा लिया, सामान दिया और फिर रिश्ते खत्म। शायद इसीलिए इसका नाम व्यापार या खरीद-फरोख्त से ज्यादा कुछ नहीं दिया गया। पर गुरु-शिष्यों के संबंध तो जन्म-जन्मातंर से चले आ रहे होते हैं…
भाई गुरु तो मैंने श्रीकृष्ण को देखा, जिन्होंने अपने अर्जुन को हर अवस्था में बचाने के लिए स्वयं को समर्पित किया और अर्जुन को भी हमने यहीं देखा कि वो अपने श्रीकृष्ण को छोड़कर दूसरे पर ध्यान ही नहीं दिया। इसे समझने के लिए एक प्रसंग को देखिये। दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण के पास है। मांगना दोनों को श्रीकृष्ण से कुछ न कुछ अवश्य है। दुर्योधन श्रीकृष्ण से नारायणी सेना मांगता है, पर अर्जुन श्रीकृष्ण से श्रीकृष्ण को ही मांग लेता है। तभी तो अर्जुन महाभारत के युद्ध में कभी परास्त ही नहीं हुआ। तो गुरु कैसा होना चाहिए श्रीकृष्ण जैसा या किसी दूसरे जैसा।
इसी प्रकार गुरु सांदीपनि हो और शिष्य श्रीकृष्ण व सुदामा जैसे हो तो फिर क्या कहने। अगर गुरु वशिष्ठ- महर्षि विश्वामित्र हो और शिष्य राम-लक्ष्मण जैसे हो तो फिर क्या कहने। गुरु महावतार बाबाजी हो तथा शिष्य लाहिड़ी महाशय हो तो फिर क्या कहने। अगर गुरु लाहिड़ी महाशय हो और शिष्य श्रीयुक्तेश्वर गिरि हो तो क्या कहने। अगर गुरु श्रीयुक्तेश्वर गिरि हो और शिष्य परमहंस योगानन्द जी हो तो फिर क्या कहने। जीवन ही धन्य धन्य हो जायेगा।
इसे आप ऐसे समझिये। श्रीकृष्ण के काल की क्रिया योग को महावतार बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय को, लाहिड़ी महाशय ने श्रीयुक्तेश्वर गिरिजी को और श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी ने परमहंस योगानन्द जी को देकर जो सारे जगत को लाभान्वित किया। इस गुरु-शिष्य की परम्परा का जिस प्रकार से इन महान गुरुओं ने निभाया। वो अब कहां देखने को मिलती है। नहीं न। लेकिन आज भी योगदा आश्रमों में इन महान गुरुओं की परम्परा व उनकी विरासत जीवित है। जहां करोड़ों लोग इससे जुड़कर अपने जीवन को धन्य-धन्य कर रहे हैं।
गुरु पूर्णिमा का दिन कोई सामान्य दिन नहीं होता। वो स्वयं को पहचानने का दिन होता है, कि हम कैसे गुरु को अपनाये, जो हमें परब्रह्म तक पहुंचा दें, क्योंकि गुरु को हम जब तक ढुंढना नहीं प्रारम्भ करेंगे, उनके प्रति ललक नहीं बढ़ेंगी, वो हम तक नहीं पहुंचेंगे। पहले इसके लिए गहरी प्यास की आवश्यकता होगी, तभी यह प्यास ईश्वर की कृपा से आपकी बुझेगी।
ईश्वर आप तक वैसे महान गुरुओं को आपके समक्ष लाकर खड़ा कर देगा, फिर आपको किसी सामान्य भौतिक वस्तुओं और उससे सुख की चाहत ही सदा के लिए समाप्त हो जायेगी, क्योंकि फिर आप वास्तविक आनन्द में गोता लगा रहें होंगे। इसलिए कोशिश तो आपको ही करनी होगी, ऐसे गुरुओं को ढुंढने की। आज ही से कोशिश शुरु कीजिये और फिर देखिये…