धर्म

गुरु पूर्णिमा पर विशेषः सदा जीवंत रहते हैं सद्गुरु – स्वामी ईश्वरानन्द गिरि

जिस तरह पश्चिम में “फादर्स डे” और “मदर्स डे” मनाने का रिवाज़ है (अब तो यह भारत में भी प्रचलन में आ रहा है), उसी तरह भारत में “गुरूज़ डे”  मनाने की बहुत प्राचीन प्रथा है। लेकिन इसे हम गुरु पूर्णिमा के नाम से मनाते हैं जो हर वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पड़ता है। यह पर्व गुरु को समर्पित होता है, और इस दिन पूरे भारत में शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं और उनके द्वारा दिखाये गए मार्ग पर निष्ठा के साथ चलते रहने का पुनः संकल्प लेते हैं। 

भारत में गुरु को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। संत कबीर ने यहाँ तक कह दिया कि शिष्य को भगवान से पहले गुरु की वंदना करने में संकोच नहीं करना चाहिए: “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय । बलिहारी गुरु आपनो जिन  गोविंद दियो बताय।“ इस दोहे को पढ़ते समय हमें यह याद रखना चाहिए कि कबीर साहब यहाँ  एक साधारण शिक्षक की नहीं, अपितु एक सद्गुरु की बात  कर रहे हैं। 

ऐसे ही एक सद्गुरु हुए, परमहंस योगानन्दजी। अपनी विश्व-विख्यात पुस्तक, “The Autobiography of a Yogi”, (हिन्दी में योगी कथामृत) में अपने गुरु, स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि का जो श्रद्धा-सिक्त और भाव-परिपूर्ण चरित्र-वर्णन उन्होंने किया, उसे पढ़कर गुरु और शिष्य, दोनों के चरणों में पाठक का मस्तक स्वयं ही झुक जाता है।

अपनी पुस्तक का शुभारंभ योगानन्दजी ने अपने गुरु का स्मरण करते हुए इस प्रकार किया: “परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। इस खोज के मेरे अपने मार्ग ने मुझे एक भगवत्स्वरूप सिद्ध पुरुष के पास पहुंचा दिया जिनका सुगढ़ जीवन युग-युगांतर का आदर्श बनने के लिए तराशा गया था। वे उन महान विभूतियों में से एक थे जो भारत का सच्चा वैभव रहे हैं।“

अपने गुरु के संदर्भ में लिखे गए ये सुंदर शब्द स्वयं योगानन्दजी के अद्भुत जीवन-चरित्र के लिए भी खरे उतरते हैं।  हालांकि उनका अधिकांश जीवन अमेरिका में योग-प्रचार में बीता, उनकी गिनती भारत के महानतम संतों में की जाती है। पूरे पाश्चात्य जगत में आज अगर योग को इतनी स्वीकृति मिल रही है, इसका अधिकांश श्रेय योगानन्दजी को जाता है जिहोंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत और पश्चिम में क्रिया योग के प्रचार के लिए समर्पित कर दिया। 

परमहंस योगानन्दजी का कहना था की सभी सच्चे गुरु अमर होते हैं। अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करने के लिए और उन पर कृपा-वृष्टि करने के लिए एक सद्गुरु को शरीर में बने रहने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जो भी सच्चा शिष्य अपने गुरु की शिक्षाओं का निष्ठापूर्ण पालन करता है, वह अपने गुरु की जीवंत उपस्थिति का अनुभव अवश्य करता है।

वे कहते थे कि सद्गुरु अपने शिष्य के कूटस्थ (भ्रूमध्य में स्थित विचार और संकल्प शक्ति का केंद्र) में रहते हैं, और जब कोई शिष्य पूरे मन-प्राण से गुरु का स्मरण करता है, तो वह अपने गुरु को हमेशा अपने पास पाता है। अतः, एक सद्गुरु और उनके सच्चे शिष्य में कोई दूरी नहीं रहती। आइये, इस गुरु-पूर्णिमा के दिन हम सब अपने-अपने सद्गुरु का भक्तिपूर्ण स्मरण करें और उनकी जीवंत उपस्थिति और मार्गदर्शन का लाभ उठाएँ।

– स्वामी ईश्वरानंद गिरि (विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक पुस्तक ‘योगी कथामृत’ के लेखक परमहंस योगानंद द्वारा स्थापित योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के एक वरिष्ठ संन्यासी) द्वारा संप्रेषित।

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  • श्री गुरुवे नमः

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