धर्म

स्वामी युक्तेश्वर गिरि आविर्भाव दिवस पर विशेषः जिन्होंने परमहंस योगानन्द जी पर सर्वस्व लूटा दिया और धन्य योगानन्द जी जिन्होंने गुरु को दिये वचन को जमीं पर उतार दिया

मैं जब भी रांची में रहता हूं। रविवार के दिन योगदा सत्संग मठ में होनेवाले रविवारीय सत्संग को छोड़ना नहीं चाहता, क्योंकि यह एक ऐसी अमृतपान करानेवाली व्यवस्था है, कि जो भी व्यक्ति इसका अमृतपान एक बार कर लेगा, वो बार-बार इसका पान करना चाहेगा, अपने जीवन को धन्य करना चाहेगा। लेकिन यह भी तभी होगा, जब गुरुकृपा होगी। बिना गुरुकृपा के यह संभव नहीं। यह भी गुरुकृपा पूर्वजन्म और वर्तमान जन्म में गुरु के प्रति उपजा प्रेम के उपर ही केन्द्रित है।

केवल आपके चाह लेने से यह संभव नहीं। जरा सोचिये, हमारे परमहंस योगानन्द जी की वो कैसी अवस्था होगी, जब स्वामी युक्तेश्वर गिरि जी उनके समक्ष पहली बार प्रकट हुए और उनका चुंबकीय प्रभाव परमहंस योगानन्द जी को अपनी ओर आकर्षित करने लगा था, गुरुजी के पांव थिरकने लगे थे। उनके पांवों को थिरकता देख हबू ने कह दिया कि तुम्हें क्या तकलीफ है कही पागल तो नहीं हो गये।

दरअसल सच्चे गुरु की जब तलाश खत्म हो जाती है तो व्याकुल मन व आत्मा की यही सच्ची अवस्था होती है। गुरु भी समझ लेता है कि जिस शिष्य की उसे तलाश है, वो यही है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे को खींचते हैं और दोनों एक दुसरे को आनन्द में समावेशित करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं। दोनो के हृदय में समानता होती है। जिसको सामान्य मापकों से मापा नहीं जा सकता। स्वामी युक्तेश्वर गिरी जी के प्रति हृदय में उमड़ती प्रेम की अविरल भावनाएं परमहंस योगानन्द के मुख पर प्रकट हो रही थी। तभी तो बिना देर किये युक्तेश्वर गिरि जी ने परमहंस योगानन्दजी को पहचान लिया और वे उनका हाथ पकड़कर काशी के राणामहल इलाके में स्थित अपने आश्रयस्थल पर ले गये।

संयोग से आज स्वामी युक्तेश्वर गिरि जी का आविर्भाव दिवस है। ऐसे समय में स्वामी युक्तेश्वर जी जैसे गुरु के अंदर छुपी दिव्यता और उसका अवलोकन या फिर उस पर चर्चा करना हमारा परम दायित्व बन जाता है, ताकि हम उनके जीवन से प्रेरणा ले सकें तथा अपने गुरु के द्वारा दिखाई गई मार्ग पर चलकर हम अपना जीवन धन्य कर सकें। नहीं तो इसी प्रकार से अपने जीवन को सामान्य तरीके से बिताने की कोशिश मूर्खता को सिद्ध करने के सिवा कुछ नहीं।

कैसे थे युक्तेश्वर गिरि जी?

परमहंस योगानन्द जी के शब्दों में जब उनसे स्वामी युक्तेश्वर गिरि मिले थे। उस वक्त उनकी उम्र करीब 55 साल की थी। उनके शरीर में युवाओं की तरह चपलता और कार्यक्षमता थी। उनकी काली, विशाल, सुन्दर आंखों में अथाह ज्ञान का तेज स्पष्ट रुप से दिखाई पड़ता था। उनके घुंघराले बाल उनके मुख पर रौबीले मुख को सौम्यता प्रदान करते थे। युक्तेश्वर गिरि जी में शक्ति और सौम्यता का अनोखा संगम था।

जरा युक्तेश्वर गिरि जी और परमहंस योगानन्द के भाव को देखिये …

युक्तेश्वर गिरि जी कहते हैं – मैं अपने आश्रम और जो कुछ भी मेरा है, वह सब तुम्हें दे दूंगा। परमहंस योगानन्द जी कहते हैं – गुरुदेव, मैं केवल ज्ञान और ईश्वर प्राप्ति के लिए आपके पास आया हूं। मुझे केवल आपका यहीं गुप्त धन चाहिए। युक्तेश्वर जी कहते हैं – मैं तुम्हें अपना निस्वार्थ प्रेम प्रदान करता हूं। क्या तुम भी मुझे वैसा ही निस्वार्थ प्रेम दोगे? परमहंस योगानन्द जी कहते हैं – मैं आपसे सदा सर्वदा के लिए प्रेम करुंगा, गुरुदेव।

अब ये छोटी सी वार्ता ही सब कुछ कह देती है कि गुरु कैसा होना चाहिए और शिष्य कैसा होना चाहिए। यहां स्वामी युक्तेश्वर जी द्वारा अपने प्रिय शिष्य के लिए सब कुछ का परित्याग और दूसरी ओर परमहंस योगानन्दजी द्वारा अपने प्रिय गुरुदेव के लिए सभी वस्तुओं का समर्पण और केवल गुरु के प्रति प्रेम का प्रकटीकरण का भाव ही बता देता है कि दोनों के हृदय में क्या भाव चल रहा है।

अब आज के गुरु और शिष्य स्वयं चिन्तन करें कि आज कितने गुरु हैं जो अपने शिष्य के लिए सभी भौतिक वस्तुओं का परित्याग कर दें, आध्यात्मिक शक्ति तो बहुत दूर की बात हैं, आध्यात्मिक शक्तियो का तो आज के गुरुओं के पास ज्ञान ही नही। साथ ही शिष्य कितने हैं, जो अपने गुरु के लिए सर्वस्व का परित्याग करने को उद्यत हो। दरअसल किसी ने ठीक ही कहा है कि वर्षों बीतते हैं तो एक स्वामी युक्तेश्वर गिरि जैसे गुरु दिखाई पड़ते हैं और उसी प्रकार कई वर्षों के बीतने के बाद परमहंस योगानन्द जी जैसे महान प्रेमावतार गुरु के दर्शन होते हैं।

जब-जब परमहंस योगानन्द जी निराश हुए। स्वामी युक्तेश्वर गिरि ने उन्हें निराशा के भाव से निकाला। जब-जब आध्यात्मिकता के आकाश में बाधाओं के स्वर गूंजे। स्वामी युक्तेश्वर गिरि उद्धारक बने। जब-जब उन्हें अपने गुरुजी की आवश्यकता पड़ी। गुरु जी ने मार्ग दिखाया। चाहे वो इस दुनिया में भौतिक रुप से मौजूद रहे हो अथवा नहीं। ऐसे भी स्वामी युक्तेश्वर गिरि जी को कही भी प्रकट होने के लिए किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं, बस भाव परमहंस योगानन्द जी वाली होनी चाहिए।

सचमुच धन्य है स्वामी युक्तेश्वर गिरि जी, जिन्होंने परमहंस योगानन्द जी में ऐसी आध्यात्मिक तेज भर दिया, जिससे आज सारा विश्व आलोकित है। स्वामी युक्तेश्वर गिरि जी द्वारा दी गई यह अनुपम भेंट आज सारी मानवता में दिव्यता को भरकर उनके जीवन में एक नई आध्यात्मिक ऊर्जा का वैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा संचार कर रहे हैं। जिसे आज सारा विश्व मान रहा हैं। यह कोई कम नहीं।