बेदाग छवि, आंदोलनकारी पृष्ठभूमि, प्रत्येक राजनीतिक दलों में समान भाव से लोकप्रिय प्रवीण प्रभाकर ने रसगुल्ले खाने की राजनीति छोड़, साग-भात की राजनीति की ओर कदम बढ़ाया, दम तोड़ रही आजसू में नई जान फूंकी
प्रवीण प्रभाकर ने आजसू की ओर फिर कदम बढ़ाया है। वे फिर से आजसू में शामिल हुए हैं। वो आजसू, जो फिलहाल पूरे झारखण्ड से गायब होती दिख रही है। जिसके विधानसभा में मात्र एक विधायक है। खुद उसके सुप्रीमो सुदेश महतो चुनाव हार चुके हैं। ऐसी दम तोड़ रही पार्टी से जुड़ने का प्रवीण प्रभाकर का दुस्साहसिक फैसला निश्चय ही, सभी को आश्चर्य में डाल दिया है। आम तौर पर लोग उसी राजनीतिक दल में जाते हैं, जिस राजनीतिक दल का सितारा बुलंद होता है। लेकिन जिस राजनीतिक दल का सितारा गर्दिश में हो, उस राजनीतिक दल में शामिल होने का फैसला प्रवीण प्रभाकर जैसा नेता ही कर सकता है, दूसरा नहीं।
प्रवीण प्रभाकर ने इसके पहले सक्रिय राजनीति से नाता तोड़ लिया था। सक्रिय राजनीति से नाता तोड़ने के पूर्व, वे भाजपा में सक्रिय थे और भाजपा में सक्रिय होने या जुड़ने के पूर्व वे आजसू में ही थे। यानी आजसू इनका फिर से पुराना ठिकाना बना है। अपने धुन के पक्के, गलत से कोई समझौता नहीं, किसी के आगे नाक नहीं रगड़ने और अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं करनेवाले प्रवीण प्रभाकर झारखण्ड आंदोलनकारी भी रहे हैं। वे किसी भी राजनीतिक दल के नेता का खुलकर अभिनन्दन करते हैं, जिसने झारखण्ड व देशहित में फैसले लिये हैं।
ये वहीं प्रवीण प्रभाकर है। जिन्होंने आजसू को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल कराने के लिए महती भूमिका निभाई थी। याद करिये, उस वक्त भाजपा के कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी आजसू के उस वक्त के पांच महत्वपूर्ण नेताओं से रांची के एयरपोर्ट के कैंटीन में 13 सितम्बर 1999 को एक मीटिंग की थी। उस मीटिंग में प्रवीण प्रभाकर के साथ, सुदेश महतो, कमल किशोर भगत, ललित महतो व हसन अंसारी भी मौजूद थे। आडवाणी सिर्फ आजसू के नेताओं से मिलने के लिए ही रांची एयरपोर्ट के कैंटीन पहुंचे थे। जहां प्रवीण प्रभाकर ने लाल कृष्ण आडवाणी से वनांचल की जगह झारखण्ड नाम रखने का अनुरोध तथा उनकी ओर से एनडीए में शामिल होने के प्रस्ताव को स्वीकार किया था।
बाद में प्रवीण प्रभाकर का आजसू से मोहभंग हुआ। वे भाजपा में शामिल हुए। फिर वे 2019 में ही भाजपा से खुद को अलग कर लिया। लेकिन सच्चाई यह भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा नाला विधानसभा चुनाव से 35 हजार और 2024 के लोकसभा चुनाव में जो 22 हजार वोट से भाजपा लीड की, उसमें प्रमुख भूमिका प्रवीण प्रभाकर की ही रही। लेकिन भाजपा के नेताओं की मूर्खता और बैलज्ञान कह लीजिये, प्रवीण प्रभाकर को भाजपा के प्रदेशस्तरीय नेताओं ने भाव ही नहीं दिया और नाला विधानसभा से ऐसे व्यक्ति को टिकट थमा दिया। जिसका हारना अवश्यम्भावी थी। वो हारा भी। रवीन्द्र नाथ महतो ने एक रिकार्ड भी बना दिया। राजनीतिक पंडित तो आज भी कहते है कि अगर नाला विधानसभा से भाजपा के टिकट पर प्रवीण प्रभाकर होते, तो नतीजा कुछ और ही होता।
इधर, प्रवीण प्रभाकर फिर से आजसू में शामिल हुए हैं। तो इसका मतलब है कि उन्होंने फिर से अपने स्वभावानुसार आंदोलनकारी पृष्ठभूमि होने का एक तरह से अपना फेस फिर से उजागर कर दिया है। उन्होंने संघर्ष का रास्ता फिर से चुना है। वे फिर से आजसू के बैनर तले वो काम करने का जिम्मा लिया है, जो आसान नहीं हैं।
प्रवीण प्रभाकर ही है, जो राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन से वार्ता करके 2023 में झारखण्ड आंदोलनकारी आयोग का पुनर्गठन कराया। पेंशन भी बढ़वाया। सरकारी सेवाओं में पांच प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण देने की घोषणा भी करवाई और वे इस कार्य के लिए दिल खोलकर हेमन्त सोरेन की प्रशंसा भी करते रहे। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि प्रवीण प्रभाकर ने फिर से आजसू में शामिल होकर, अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को फिर से पुनर्जीवित किया है। लेकिन, क्या सुदेश महतो अपने विचारधाराओं व बोलचाल में परिवर्तन लायेंगे?
क्योंकि सुदेश महतो और भाजपा के रघुवर दास की भाषा में कोई ज्यादा का अंतर नहीं हैं और इसी भाषा के कारण सुदेश महतो को भी वही हार का सामना करना पड़ा है, जो सामना रघुवर दास को करना पड़ा है। हर व्यक्ति से तुम-ताम करने की उनकी शैली ही, उनके हार का और उनकी पार्टी के नीचे ले जाने का कारण बनता जा रहा है। लेकिन सुदेश सुधरने का नाम नहीं ले रहे। अगर सुदेश महतो अपने स्वभाव व शैली में बदलाव लाते हैं, तो निश्चय ही उन्हें फायदा मिलेगा। लेकिन जब तक वे स्वभाव व बोलचाल की शैली में बदलाव नहीं लाते, तो कितने भी प्रवीण प्रभाकर उनकी पार्टी में आ जाये, क्या फर्क पड़ता है?