अपनी बात

मृत पत्रकारों की जिम्मेवारी पहले मीडिया संस्थान लें, CM मीडिया हाउसों को मिलनेवाले सरकारी विज्ञापनों पर पत्रकारों के कल्याण के लिए दस प्रतिशत सेस लगाये, जो सिर्फ लाचार पत्रकारों पर खर्च हो।

आदरणीय मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन जी,

झारखण्ड प्रदेश,

इसमें कोई दो मत नहीं, कि आप में वो जज्बा है, कि आप बहुत कुछ कर सकते हैं, करना चाहते हैं, पर सच्चाई यह भी है कि जब भी आप कुछ बेहतर करना चाहते हैं, कोरोना नामक बिमारी उन बेहतर कार्यों पर ब्रेक लगा दे रही हैं। कोरोना की पहली लहर बीत जाने के बाद लगा था कि अब झारखण्ड तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ेगा, लेकिन कोरोना की दुसरी लहर ने फिर से विकास की गति पर ब्रेक लगा दी और फिर आप कोरोना को रोकने में ही सारी ऊर्जा लगा दी।

इस कोरोना ने इस बार कई लोगो की जाने ले ली हैं, जिनमें पत्रकारों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। कहने को तो पत्रकारों के लिए सारा जहां हमारा हैं, पर सच्चाई यह भी है कि जहां काम करते हैं, वहां भी वे बेगाने हैं, क्योंकि मरने के बाद  ये संस्थान ये भी नहीं लिखते कि एक पत्रकार जो मरा है, वो उनके संस्थान में काम करता रहा है। बड़े-बड़े संपादकों या बड़े-बड़े मठाधीश पत्रकारों के लिए तो ये बड़ी-बड़ी गाड़ियां तक एक रुपये में ट्रांसफर कर देते हैं, लेकिन उन्हीं लोगों के बीच काम करनेवाले छोटे-मझौले पत्रकारों की क्या दशा होती है, मुझसे बेहतर कौन जान सकता है।

आज एक झारखण्ड से प्रकाशित अखबार दैनिक “प्रभात खबर” ने पत्रकारों को लेकर न्यूज प्रकाशित की है, जिसमें उसने आपको झकझोरने की कोशिश की हैं, उसे लगता है कि आप पत्रकारों को लेकर निष्क्रिय है, सोचते कुछ भी नहीं है, उसने लिखा है कि “सुनिये सरकार, मर रहे हैं पत्रकार”। लेकिन उस अखबार ने पत्रकारों के मरने की खबर तो दी, पर ये खबर छुपा लिया कि ये पत्रकार किन-किन संस्थानों में काम करते थे?

इस अखबार ने आपके द्वारा दी गई पत्रकारों की श्रद्धांजलियों के शब्दों पर भी कैचियां चला दी, जिसमें आपने उन संस्थानों का जिक्र करते हुए श्रद्धाजंलि दी थी, कि वे किस संस्थान से जुड़े थे। चलिये छोड़िये, ये तो कोरोना काल हैं, हमने तो देखा है कि रांची में ऐसे-ऐसे महान संपादक हुए, जिन्होंने छोटी-छोटी तुच्छ बातों पर छोटे-मझौले पत्रकारों-छायाकारों को ऐसा डांटा कि कोई ट्रेन के नीचे चला आया तो कोई जीवन-लीला ही समाप्त कर लिया।

ऐसे भी अपने देश में एक लकीर खींची हुई है, छोटे व बड़े की, छोटे हमेशा पीसे जाते हैं, पीसे जाते रहेंगे, पर बड़ों का क्या है? हमेशा मस्ती में रहेंगे। मुख्यमंत्री जी, हम यहां एक बात और कहना चाहेंगे कि “हम एक बात के लिए यहां पर प्रभात खबर को धन्यवाद जरुर देंगे कि जहां पत्रकारों की हो रही मौत पर सारे अखबार चुप्पी साधे हुए हैं, कम से कम इसने उन पत्रकारों की आवाज बनने की कोशिश की” पर ये नहीं बताया कि इस समस्या का समाधान कैसे हो?

एक पत्रकार सुरेन्द्र सोरेन ने अपने साइट पर प्रभात खबर के प्रथम पृष्ठ पर छपी दो समाचारों के कटिंग काट कर पोस्ट करते हुए कुछ बातें लिखी है, वो हैं – “प्रवासी मजदूरों के लिए पॉलिसी और पत्रकारों के लिए? हम भी मजदूर हैं हुजूर, वो कुदाल चलाते हैं, हम कलम कैमरा।” जब पत्रकार खुद को मजदूर कहने लगे, तो उक्त पत्रकार की पीड़ा सब कुछ कह देती है, हमने उक्त पत्रकार से इस पोस्ट को पढ़ने के बाद करीब आधे घंटे तक बातचीत की, बातचीत से पता चला कि समाज में कितनी दूरियां बढ़ती जा रही हैं, और ये दूरियां खतरनाक है। इसे इतना जल्दी समाप्त भी नहीं किया जा सकता, पर ईमानदारीपूर्वक काम किया जाय तो ये कोई ऐसी समस्या भी नहीं कि इसे मिटाया नहीं जा सकता।

हम चाहेंगे कि पत्रकारों पर आसन्न संकट या भविष्य में उन पर घटनेवाले संकट को लेकर आप सक्रिय हो। आप इनके लिए भाग्यविधाता साबित हो सकते हैं, बस कुछ नहीं आपको थोड़ा सा ध्यान देना है, मैं चाहता हूं कि आप एक प्रस्ताव पत्रकारों के लिए भी बनाएं, क्योंकि हमने देखा है, आपने मदद भी की है कि कई पत्रकार, जो कहने को तो बहुत बड़े-बड़े अखबारों, चैनलों में काम करते हैं, पर उनकी स्थिति ऐसी भी नहीं होती कि अगर कोई समस्या उनके सामने मुंह बाकर खड़ी हो जाये, तो उसका मुकाबला भी कर सकें। अतः आपसे अनुरोध है कि इस ओर ध्यान दें, जो मैं आपको बताने जा रहा हूं। आप पत्रकारों की दयनीय दशा को देखते हुए एक कमेटी बनाएं, जो इन लिखी हुई बिन्दुओं पर जांच करें, ताकि छोटे-मझौले पत्रकारों को न्याय मिल सकें। जैसे…

  • झारखण्ड में अब तक कितने अखबार, चैनल, पोर्टल प्रकाशित/प्रसारित हो रहे हैं?
  • इन अखबारों/चैनलों/पोर्टलों के मालिक/प्रबंधक/संचालक कौन है? इनका इनके सिवा और किस-किस चीज का धंधा चलता है?
  • इन संस्थानों में काम करनेवाले बड़े पत्रकारों को छोड़ छोटे-मझौले पत्रकारों को ये वेतन के रुप में क्या देते हैं तथा जिला/प्रखण्ड/अनुमंडल के संवाददाताओं को क्या देते हैं?
  • सच्चाई यह है कि कोई भी संस्थान चाहे पत्रकारों का हो या किसी भी व्यवसाय का, अगर कोई उसके यहां काम करता है तो उस संस्थान या उस संस्थान के मालिक की जिम्मेवारी है कि अपने यहां काम करनेवाले कर्मियों की जिम्मेवारी लें, उसका हक दें, लेकिन ये करते क्या है? जैसे ही कोई कर्मी/पत्रकार मरता है, तो पिंड छुड़ा लेते हैं, उसे अपने यहां का कर्मी/पत्रकार तक मानने से इनकार कर देते हैं, जो अमानवीय है।
  • पत्रकारों के लिए मजीठिया दी गई, पर आज भी मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे कुछ मुट्ठी भर पत्रकार ही अपनी सम्मान की लड़ाई लड़कर अपना हक ले पाते हैं, बाकी उसी संस्थान में रहनेवाले पत्रकार, अपने हक की लड़ाई लड़नेवाले अपने ही बंधु को टुकूर-टुकूर ताकते हैं, पर मदद को आगे नहीं बढ़ते, लेकिन जैसे ही कोई पत्रकार मरता हैं तो सरकार के आगे धरना-प्रदर्शन शुरु कर देते हैं।
  • वर्तमान में राज्य सभा के उप-सभापति तथा कभी प्रभात खबर के प्रधान संपादक रह चुके हरिवंश के पीए रह चुके पंकज कुमार पाठक तो साफ कहते हैं कि “सिर्फ पत्रकार क्यों? वो फलां मेडिकल स्टोर और चिलाना जेनरल स्टोर का मालिक और स्टाफ क्यों नहीं? जो सरकारी सुविधा पत्रकारों को चाहिए, वो अभी के माहौल में उनको क्यों नहीं मिलना चाहिए? आपको सरकार ने कहा था कि पत्रकार बनें? जो हक आप सरकार से मांग रहे हैं, कायदे से आपको अपने मालिक से मांगना चाहिए, लेकिन आप में न तब साहस था, जब मजीठिया की लड़ाई लड़ी जा रही थी और न अब है। AC वाली केबिन में घुसने से पहले डरनेवाले लोग है आप? सरकार के लिए आप खास क्यों है? और वो तपती दुपहरिया में सब्जी बेचनेवाली क्यों नहीं?”

  • पंकज कुमार पाठक ने जो ये बात उठाई है, उस पर आप या हम अंगूली नहीं उठा सकते? हमें याद है कि 2 मई को जब आप से (सीएम हेमन्त सोरेन से) मुख्यमंत्री आवास पर एक पत्रकार ने कोरोना को लेकर पत्रकारों से संबंधित सवाल पूछे थे, तब शायद इन्हीं बातों को लेकर आप (हेमन्त सोरेन) ने कहा था कि केवल पत्रकार ही क्यों? हमारे लिए तो सभी जनता खास है, और उन जनता में पत्रकार भी आते हैं।
  • आप हमेशा अखबारों/चैनलों/ पोर्टलों को समय-समय पर विज्ञापन देते रहते हैं, और उसी विज्ञापन पर इनलोगों का धंधा भी चलता है। मेरा कहना है कि जो आप विज्ञापन देते हैं, उस विज्ञापन में एक पत्रकार सेस भी लगाइये, जो कम से कम दस प्रतिशत हो। उस सेस से आई राशि पत्रकारों के कल्याण पर खर्च हो, जिस पर सरकार का नियंत्रण हो और ये राशि उन पत्रकारों पर खर्च हो, जो लाचार हो, बेबस हो। ये नहीं कि उन पत्रकारों पर खर्च हो, जो करोड़ों/लाखों का पैकेज लेकर, बड़े-बड़े अखबार मालिकों से एक रुपये की राशि पर दो-दो गाड़ियां ले लेते हो। अगर आप ऐसा कर देते हैं, जो सहज भी हैं, कर भी सकते है, क्योंकि विज्ञापन तो हमेशा आप देते ही रहते हैं, तो फिर देर क्या है, लगाइये सेस, पत्रकारों का लाभ भी हो जायेगा और कोई चां-चूं भी नहीं करेगा?
  • श्रम विभाग को कहिये कि जिन संस्थानों में पत्रकारों के कल्याण के लिए विशेष प्रबंध नहीं किये गये हैं, उनकी सूची उपलब्ध कराये और सरकार ऐसे संस्थानों पर कड़ी कार्रवाई करें, क्योंकि रखेंगे संस्थान तो उनके कल्याण की जिम्मेवारी कौन लेगा सरकार?

आशा है, मेरे द्वारा दिये गये सुझाव पर शीघ्र ध्यान देंगे। सधन्यवाद।

भवदीय

कृष्ण बिहारी मिश्र

स्वतंत्र पत्रकार, रांची

One thought on “मृत पत्रकारों की जिम्मेवारी पहले मीडिया संस्थान लें, CM मीडिया हाउसों को मिलनेवाले सरकारी विज्ञापनों पर पत्रकारों के कल्याण के लिए दस प्रतिशत सेस लगाये, जो सिर्फ लाचार पत्रकारों पर खर्च हो।

  • Ajay Prasad

    * शोषण के खिलाफ लिखने वाला पत्रकार सबसे अधिक है शोषित*

    बिल्कुल सही जो पत्रकार शोषण के खिलाफ लिखता है वही आज सबसे ज्यादा अधिक शोषित है वह भी आपने ही सुपीरियर पत्रकारों से। इसलिए मैं कृष्ण बिहारी मिश्रा जी के पोस्ट से शत-प्रतिशत सहमत हूं और सरकार अगर ऐसा कर दे तो निश्चित रूप से पत्रकारों का बहुत भला होगा। मुख्यमंत्री महोदय को इस पर गहन चिंता कर विचार करना चाहिए

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