निर्माण, संचालन और समस्त विकारों के संहार का सम्मिश्रण ही गुरु है, ऐसे ही गुरु नमन योग्य हैं
आज आषाढ़ पूर्णिमा है। आषाढ़ पूर्णिमा को लोग गुरु पूर्णिमा के नाम से भी जानते हैं। आज व्यास जयंती भी है। आज के ही दिन से लोग शाक् का भी त्याग कर देते हैं, जो पूरे श्रावण महीने तक चलता है। अगर भारतीय परम्पराओं व भारतीय संस्कृति पर आपकी पकड़ हैं, तो आपको यह जानते भी देर नहीं लगेगी कि, आज के ही दिन ज्यादातर गुरुकुलों व आश्रमों में विद्याभ्यास कर रहे ब्रह्मचारी, कृषि कार्यों के लिए विशेष कार्यक्रम बनाते थे, क्योंकि यह समय कृषि कार्यों के लिए बहुत उपयुक्त हुआ करता था।
आश्रम व गुरुकुल के प्रतिष्ठित आचार्य अपने ब्रह्मचारियों के माध्यम से कृषिकार्यों को संपन्न ही नहीं, बल्कि इस दौरान शोध भी किया करते थे। कही-कही आज के दिन विशेष आयोजन भी कराये जाते थे, तथा गुरुओं में श्रेष्ठ व्यास की जयंती मनाई जाती तथा उनसे प्रेरणा लेकर एक बेहतर इन्सान बनने की लोग सीख भी लेते। अब चूंकि भारत में वो प्राचीन परम्परा नहीं रही, अंग्रेजों ने भारतीय नेताओं के साथ मिलकर ऐसी शिक्षण परम्पराएं विकसित की, कि उससे भारतीय अर्थव्यवस्था सदा के लिए समाप्त होती चली गई। भारतीय युवा नाम के भारतीय रहे, पर उनका मन पर विदेशियों का साम्राज्य स्थापित हो गया।
नतीजा यह निकला कि स्वतंत्रता के बाद, भारत के आस-पास रहनेवाले देश भारत से कही आगे निकल गये और भारत स्वयं को कोसता रह गया, स्थिति ऐसी है कि आज के दिन भारत की सीमाओं पर विदेशी ताकतों का जमावड़ा हो चुका है, और वे भारतीय सीमा को निगलने के लिए तैयार है। आश्चर्य है कि ऐसा करने और कराने में भारतीय लोगों का ही हाथ हैं, क्योंकि जिन्होंने जिस चीन को मजबूत बनाया, वो चीन ऐसे ही नहीं मजबूत बना, बल्कि यहां के लोगों ने चीन की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में मुख्य भूमिका निभा दी, और ऐसा इसलिए हुआ कि हमने अपने विद्यार्थियों को देश के प्रति मर-मिटने, उन्हें संस्कारित और देशभक्ति की शिक्षा देने के बजाय, उन्हें ऐसा मानव बनाने में ज्यादा दिमाग लगाया, जो धन-पशु बन जाये, और हुआ भी यही।
जबकि पूर्व में ऐसा नहीं था, प्राचीन भारत में ऐसी शिक्षा व्यवस्था थी कि राजा का बेटा और निर्धन का बेटा, एक ही व्यवस्था में शिक्षा ग्रहण करता था। अगर गुरुकुल में कोई नियम लागू हैं तो राजा और निर्धन दोनों के बेटे पर वो नियम लागू थे। जिन्हें गरीब सुदामा और नंद बाबा के बेटे श्रीकृष्ण की शिक्षा के बारे में जानकारी हैं, वे जानते होंगे कि संदीपनि के आश्रम में दोनों के लिए एक ही व्यवस्था थी।
श्रीकृष्ण और सुदामा दोनों साथ-साथ पढ़े, दोनों साथ-साथ लकड़ियां चुनने जाते, दोनों साथ-साथ संदीपनि यानी अपने गुरु की सेवा करते, कभी किसी के मन में कोई मनो-मालिन्य नहीं, ऐसी थी पूर्व की शिक्षा व्यवस्था। अपने यहां तो कहा ही जाता था कि गुरु सुश्रुषया विद्या। गुरु की सेवा से विद्या होती है।
गुरु धौम्य ने ब्रह्मचारी आरुणि को सांध्य वेला में कह दिया कि वो खेत जाकर मेड़ बनाए और पानी को खेत में बहने से रोके, लीजिये रात हो चली, आरुणि अपने गुरु की बात को मानने के लिए लग जाता है, पर उसे सफलता नहीं मिलती, अब क्या करें, उसने अपनी शरीर को ही मेड़ बना दिया, लीजिये रात बीत रही है, धौम्य चिन्तित है। अभी तक आरुणि नहीं आया। सुबह होती हैं, वे अन्य ब्रह्मचारियों को लेकर खेत की ओर निकल पड़ते हैं और आरुणि को खेत में लेटा देख, समझ जाते है कि आरुणि ने क्या किया है?
धौम्य उसे स्वयं उठाते हैं, और आरुणि को हृदय से लगा लेते हैं, ऐसे होते थे गुरु और ऐसे होते थे, उस वक्त के शिष्य। अब जरा सोचिये क्या आज के गुरु महर्षि धौम्य के जैसे है? क्या आज के शिष्य आरुणि की तरह है? अगर नहीं तो फिर वैसे महान भारत की परिकल्पना केवल कर लेने से नहीं होगा?
आज का गुरु क्या करता है, पैसों के लिए सिर्फ प्रवचन करता हैं, पर खुद पर वो प्रवचन लागू नहीं करता। वो लोगों से माया से दूर रहने को कहता है, पर खुद माया रुपी ऐसा भंवर जाल बना लेता है कि खुद ब खुद उसका शिकार होकर जेल की शोभा बढ़ाता है। आज का गुरु अपने अंदर रखे ज्ञान को एक वणिक की तरह पैसे से बेचता हैं और शिष्य उसे खरीदता है। ठीक उसी प्रकार जैसे कोई वणिक धनिया, गोलमिर्च, हल्दी मसाले इत्यादि बेचा करता है और जब कोई गुरु वणिक बनेगा तो उसे क्या इज्जत मिलेगी? आप स्वयं समझने की कोशिश करिये।
लीजिये, इसी पर एक और कहानी सुनिये। वरतन्तु अपने शिष्य कौत्स को पूरी शिक्षा दे दी, और जब गुरु दक्षिणा देने की बात आई तो वरतन्तु ने कह दिया कि उसने जिस प्रकार से उनकी सेवा की हैं, वहीं उसकी गुरुदक्षिणा हो गई। ऐसे होते थे गुरु। तभी तो इनकी तुलना ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक से कर दी गई।
स्वामी दयानन्द सरस्वती को देखिये, उनके गुरु थे नेत्रहीन स्वामी विरजानन्द सरस्वती और ये नेत्रहीन गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने ऐसा चक्षु स्वामी दयानन्द सरस्वती को दे दिया कि दयानन्द ने पूरे भारत को ही झकझोर दिया, आर्य समाज की स्थापना की और आर्य समाज के क्रांतिकारी विचारों ने कैसे देश को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया, ये किसी से छुपा है क्या?
जरा देखिये, रामकृष्ण परमहंस को, उन्होंने कैसे अपने शिष्य नरेन्द्र को स्वामी विवेकानन्द बना दिया, जिन्होंने भारत के बारे में लोगों की सोच ही बदल दी, उस वक्त जब भारत परतंत्र था। कैसे गुरु थे – राम कृष्ण परमहंस, जिन्होंने ऐसा नायक विवेकानन्द के रुप में विश्व को दिया, जिसका संपूर्ण विश्व आज भी दिवाना है। क्या रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु आज हैं, अगर नहीं तो ये चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए?
जरा देखिये परमहंस योगानन्द को, जरा देखिये उनकी गुरुभक्ति, देखिये अपने गुरु युक्तेश्वर गिरि के प्रति कितने समर्पित है। गुरु युक्तेश्वर गिरि को देखिये, कि उन्हें अपने प्रिय शिष्य परमहंस योगानन्द की कितनी चिन्ता है। वे योगानन्द में ऐसी प्रतिभा विकसित करते हैं कि उनका शिष्य पश्चिम जाकर भारत की अमूल्य धरोहर क्रिया योग को जन-जन के लिए सुलभ कर दिया। जिस क्रिया योग को जानने के लिए लोग वर्षों से लालायित थे। जिस क्रिया योग को भगवान कृष्ण ने जिया। जिस क्रिया योग को महावतार बाबा जी के माध्यम से लाहिड़ी महाशय को प्राप्त हुआ और लाहिड़ी महाशय ने युक्तेश्वर गिरि को प्रदान किया, जिसके बाद परमहंस योगानन्द के माध्यम से होता हुआ, यह क्रिया योग जन-जन तक पहुंच रहा है।
मतलब कहने का क्या है? गुरु हर कोई नहीं हो सकता। गुरु होने की पहली शर्त है – अपने शिष्य के लिए संपूर्ण त्याग। ठीक उसी प्रकार जैसे कोई माता-पिता अपने बच्चों को अभाव में देख कभी आनन्द मना पाता, ठीक उसी प्रकार कोई भी गुरु, अपने शिष्य को अभावों में देख, स्वयं को संतुष्ट नहीं कर सकता। गुरु निर्माण, संचालन और समस्त विकारों का संहार करनेवाला सम्मिश्रण है, जिस गुरु में किसी शिष्य के उत्तरोतर विकास करने का गुण, मार्गदर्शन करने का गुण या उसके अंदर छुपे विकारों को संहार करने का अद्भुत गुण मौजूद नहीं हैं, वो गुरु हो ही नहीं सकता।
स्कूल, कॉलेजों व आजकल के विश्वविद्यालयों, कोचिंग संस्थानों, ऑनलाइन के माध्यम से पैसे की जुगाड़ करनेवालें संस्थानों में सिर्फ वणिक रुपी शिक्षक हो सकते है, गुरु नहीं। गुरु हर प्रकार के तिमिरों को अपने शिष्य के मार्ग से हटा देता हैं, उसे उस प्रकार से बना देता है, जैसा उसे बनना है। जैसे एक अच्छा शिष्य गुरु को पहचान लेता हैं, ठीक उसी प्रकार एक अच्छा गुरु ही अपने अच्छे शिष्य को पहचान पाता हैं।
ठीक उसी प्रकार जैसे अर्जुन ने श्रीकृष्ण को पा लिया। जैसे मीराबाई ने संत रविदास को प्राप्त कर लिया। जैसे परमहंस योगानन्द जी ने स्वामी युक्तेश्वर गिरि को प्राप्त कर लिया, फिर उसके बाद उन शिष्यों के अंदर कैसी प्रतिभा आई, वो सारी दुनिया ने देख लिया। हमें लगता है कि इतने दृष्टांत काफी हैं, आज गुरु पूर्णिमा के दिन, आपको जगाने के लिए।