रांची योगदा मठ के स्मृति मंदिर में ध्यान कर रही विदेशी महिला, जो सभी के आकर्षण का केन्द्र बन गई
पांच जनवरी। योगदा सत्संग मठ। मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ योगदा सत्संग मठ पहुंचा, क्योंकि वहां परमहंस योगानन्द जी का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। ऐसे भी मुझ पर परमहंस योगानन्द जी की बहुत बड़ी कृपा रही हैं। मैं मानता हूं कि पूरा भारत ही संतों, महात्माओं का देश हैं। मेरी तो महत्वाकांक्षा है कि भारत में जितने भी ऋषि-महर्षि या संत-महात्माओं से जुड़े जो स्थल है, उनका दर्शन करुं और स्वयं को धन्य करुं। देखते हैं, ईश्वर हमें इसमें कहां तक सहायता पहुंचाते हैं?
इधर मैं जैसे ही योगदा सत्संग मठ के अंदर प्रवेश किया, अचानक मेरा ध्यान एक विदेशी युवती पर पड़ा, जो मठ में बने स्मृति मंदिर के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठी थी। मैंने देखा कि जो भी व्यक्ति शिवमंदिर की ओर जा रहे थे, उनका ध्यान बरबस उक्त विदेशी महिला पर चली जा रही थी, कुछ एक मिनट के लिए ठहर कर उसे देखने लग जाते, तो कुछ मन ही मन उसके बारे में बाते करने लग जाते, देखनेवाले के चेहरे का भाव बता देता, कि शायद वह यह कहना चाह रहे हो कि कहां इस विदेशी महिला का ध्यान करने की मुद्रा और कहां हम?
हम बता दें कि योगदा सत्संग मठ में हमेशा विदेशियों का आना-जाना लगा रहता है। योगदा भक्तों के लिए रांची का यह मठ किसी मक्का से कम नहीं। हर योगदा से जुड़ा व्यक्ति चाहे वह कहीं भी हो, रांची आकर अपने परमहंस योगानन्द की इस माटी से खुद को जोड़ना नहीं भूलता। कई आगंतुकों ने हमसे कहा, कि धन्य हैं रांचीवासी, जहां परमहंस योगानन्द ने अपने जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पल बिताये, योगदा की शिक्षा दी, और भारत के आध्यात्मिक प्रकाश को पश्चिम तक पहुंचा दिया, और वे गुरु के निकट हैं।
जहां वो विदेशी महिला ध्यान कर रही थी, उसे स्मृति मंदिर कहा जाता है, पहले यह स्मृति मंदिर नहीं थी, कुछ साल पहले ही यह निर्मित हुआ है, जहां परमहंस योगानन्द जी की एक बहुत ही सुंदर व हर्षित छवि का चित्र लगा है, जिसे देख लोग देखते ही रह जाते है। इस स्मृति मंदिर से भी इतिहास जुड़ा है। बताया जाता है कि यह वही जगह है, जहां परमहंस योगानन्द जी को आभास हुआ था, अमेरिका के दृश्य उनके मानस पटल पर अंकित हो गये थे, और उन्हें लगा कि उन्हें पश्चिम से संदेश आया है, अब उन्हें अमेरिका जाना चाहिए और फिर वे अमेरिका के लिए कोलकाता से रवाना हुए।
स्मृति भवन में बैठी वह विदेशी महिला का ध्यान करने की मुद्रा ने सबको चौकाया, क्योंकि ज्यादातर देखने में आया है कि योगदा सत्संग मठ में आनेवाले भारतीय या रांचीवासी अपनी चिन्ताओं व परेशानियों से दूरियां बनाने के लिए, अपने संकटों से छुटकारा पाने के लिए मठ की दौड़ लगाते हैं, कुछ तो ध्यान करते हैं, और कुछ कभी ध्यान किया और कुछ कब ध्यान किया, उनको खुद ही पता नहीं होता, पर उक्त विदेशी महिला का ध्यान के प्रति समर्पण सब कुछ कह दे रहा था कि परमहंस योगानन्द जी का बताया रास्ता कितना हमारे लिए उपयोगी है, अगर हम ध्यान करते हैं तो स्वयं ही अपने आप पर विजय पाकर, स्वयं को आलोकित कर सकते हैं।
कभी-कभी मैं सोचता हूं कि ईश्वर ने हर व्यक्ति को उसके आध्यात्मिक विकास के लिए उसके आस-पास वो हर चीजें दे दी है, जिससे वह स्वयं को आलोकित कर सकता है, पर सच्चाई यह भी है कि लोग आध्यात्मिक विकास को त्यागकर भौतिक विकास को ही प्रगति का सर्वोच्च मार्ग समझ लेते हैं। कभी वे यह सोचने की कोशिश नहीं करते कि कबीर ने भौतिक विकास पर कितनी सुंदर बातें कही हैं – “माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर। आशा-तृष्णा ना मुई यो कहि गया कबीर।।”
आश्चर्य है कि पश्चिम जगत् भारत की इस आध्यात्मिक प्रकाश को पाने के लिए सात समंदर पार आने को बेताब है, और हम यही रहकर अपनी इस आध्यात्मिक पूंजी को समझने की कोशिश नहीं करते। हमें आश्चर्य होता है कि योगदा सत्संग मठ के चारों ओर से रास्ते हैं, उन रास्तों पर प्रतिदिन लाखों लोग इस मठ से बाहर होकर निकलते हैं, पर किसी को पता नहीं कि इस मठ के अन्दर प्रवेश करने से किस प्रकार का आध्यात्मिक सुख मिलता है, और वह सुख हमारे लिए कितना उपयोगी है।
यह तो वही बात हो गई कि कोई अमृत लिये सड़क के किनारे बैठा है, हर से पूछ रहा हैं कि वह अमृत पी ले, उसकी सारी परेशानियां दूर हो जायेगी और सामनेवाला मनुष्य मुस्कुरा कर आगे की ओर बढ़ जा रहा है, अब बताइये मूर्ख कौन हैं, वह अमृतपान करानेवाला या वह व्यक्ति जिसे अमृत का रहस्य पता ही नहीं।
आश्चर्य है कि वह विदेशी महिला जिस प्रकार से ध्यान में डूबी थी, उसका ध्यान करना बता रहा था कि वह देवत्व के अत्यधिक निकट है, उसे ध्यान का मतलब पता लग गया हैं, निरन्तर ध्यान करने के कारण उसके चेहरे पर दिव्यता भी झलक रही थी, पर यह भी सच्चाई है कि, जो उसके ध्यान का मतलब समझ रहे थे, वे भी आनन्द को प्राप्त कर रहे थे।
स्मृति मंदिर के बाद, मैं वहां से शिव मंदिर पहुंचा। जहां परमहंस योगानन्द जी का जन्मोत्सव मन रहा था। बाद में परमहंस योगानन्द जी की आरती-पुष्पांजलि के बाद, भंडारे का प्रसाद ग्रहण किया और फिर अपने गंतव्य की ओर चल दिया, रास्ते में बार-बार विदेशी महिला की ध्यान करने की मुद्रा, गुरु के प्रति समर्पण की भावना, रांची जैसे छोटे से शहर में आकर गुरु की दिव्यता का बोध करना, हमें झकझोर कर रख दिया, कि आखिर हम भारतीयों को यह ज्ञान कब होगा कि ध्यान और परमहंस योगानन्द हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण है?