असली योगी वहीं है, सर्वश्रेष्ठ योगी वहीं है, जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, सांसारिक चीजों में आसक्ति नहीं रख, ईश्वर को किसी भी परिस्थितियों में नहीं भूलता हैः स्वामी चैतन्यानन्द
श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय का 46 वां श्लोक हमें बताता है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि वो योगी बने। यहां श्रीकृष्ण गुरु हैं और अर्जुन शिष्य। जब कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने युद्ध लड़ने से इनकार किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह कहकर छोड़ नहीं दिया कि उसे जो करना है करें, बल्कि उन्हें पकड़कर रखा और अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित किया।
इसका अभिप्राय है कि जो गुरु होते हैं, वे एक बार जब अपने शिष्य का हाथ पकड़ लेते हैं, तो उसे किसी भी परिस्थितियों में छोड़ते नहीं, पकड़े रहते हैं और जब तक उसका कल्याण नहीं हो जाता, थामे रहते हैं। उपरोक्त बातें आज योगदा सत्संग आश्रम में आयोजित रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए स्वामी चैतन्यानन्द ने कही।
उन्होंने महाभारत के प्रसंग को आज के परिप्रेक्ष्य में प्रतीक के रुप में बताते हुए कहा कि प्रत्येक साधक को उसके कुरुक्षेत्र की लड़ाई खुद लड़नी है और उसे हर हाल में उस युद्ध को जीतना तथा ईश्वर तक पहुंचना है और ये तभी संभव है, जब उसके पास श्रीकृष्ण जैसा गुरु हो। चैतन्यानन्द ने कहा कि कौरव शत्रु का प्रतीक है जो हमें ईश्वर से दूर करता है, जबकि पांडव ईश्वर के निकट ले जानेवाले के प्रतीक।
उन्होंने कहा कि पांडवों में भी युद्धिष्ठिर शांति, भीम प्राणायाम के माध्यम से खुद को संबल करने, अर्जुन आत्मसंयम, नकुल सदमार्ग और सहदेव बुराईयों से दूर रहने के प्रतीक हैं। चैतन्यानन्द ने कहा कि समस्त बुराइयों के जड़ कौरवों पर समस्त अच्छाइयों के प्रतीक पांडवों की तरह अपने जीवन पर विजय पाना ही एक योगी के कर्म होने चाहिए।
उन्होंने कहा कि हमें किसी भी हालत में सांसारिक सुखों में फंसना नहीं हैं, यह जानते हुए भी हम फंस जाते हैं और इन सांसारिक सुखों में हम नहीं फंसे इससे हमें दूर ले जाने का काम सद्गुरु करते हैं। उन्होंने कहा कि मनुष्य जो भी करता है, ये सोच कर करता है कि उससे हमें आनन्द की प्राप्ति होगी। दुख और पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। जिससे आनन्द प्राप्त न हो, वो काम मनुष्य कर ही नहीं सकता, ये उसके स्वभाव में हैं।
उन्होंने कहा कि इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि हे अर्जुन तुम योगी बनो, तुम्हें आनन्द मिलेगा। उन्होंने कहा कि कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग ये सभी ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग है। राजयोग सभी योगों का सार है। क्रिया योग ईश्वर तक पहुंचने की सटीक विधि सीखाता है। उन्होंने कहा कि परमहंस योगानन्द जी ने जो हमें तकनीक सिखाई है। उस तकनीक को अगर हम अपनाते हैं, उसका अभ्यास करते हैं, तो हम सहजता से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं।
उन्होंने कहा कि क्रिया योग किसी भी योगी की पूंजी है। जिसके द्वारा हम ईश्वर को सहजता से प्राप्त करते हैं। जब हम क्रिया योग अपनाते हैं तो हम कौरव रुपी शत्रुओं पर आसानी से विजय प्राप्त कर लेते हैं। उन्होंने कहा कि हमारा जो सामान्य कर्तव्य है, उन्हें छोड़ना नहीं हैं, बल्कि उन दायित्वों का भी पालन करना है, पर उसमें अनासक्ति रखते हुए ईश्वर को प्राप्त करना है। उन्होंने कहा कि जब हम सुख का आधार बाहरी चीजों या सांसारिक चीजों में मान लेते हैं तथा उसमें आसक्ति रखने लगते हैं तो फिर यही दुख का कारण बन जाता है।
उन्होंने कहा कि धन कमाना या अच्छा स्वास्थ्य रखना ये बुरी चीजें नहीं हैं, पर उसमें ही आसक्ति को लगा देना, उसे ही प्रधान मान लेना गलत है। उन्होंने कहा कि प्राणायाम के द्वारा जब आप अन्तर्मुखी होंगे तभी आप सुखी होंगे। उन्होंने इसी दौरान राजा जनक और शुकदेव जी की कथा को दृष्टांत के रुप में रखा जिसे सुनकर सभी योगदा भक्त आह्लादित हो उठे।
उन्होंने इस दृष्टांत के माध्यम से कहा कि अपने कर्तव्यों का निर्वहण करते हुए ईश्वर को प्राप्त करना है, न कि अपने कर्तव्यों को छोड़कर केवल ईश्वर को प्राप्त करने में लग जाना है। उन्होंने कहा कि असली योगी वहीं है, सर्वश्रेष्ठ योगी वहीं है, जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर को भी न भूलें।
उन्होंने कहा कि युक्तेश्वर गिरि जी के शब्दों में जो लोग दुनिया के लिए अच्छे हैं, वे अलग दुसरी दुनिया के लिए भी उतने ही अच्छे हैं। योगी बनने के लिए योग करने के लिए कही जाने की जरुरत नहीं, आप जहां हैं, वहीं रहकर आप योग को अपना सकते हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी विषय में सफल होने के लिए प्राणायाम जरुरी है, क्योंकि यही मन को कंट्रोल करता है, इसलिए मन को कंट्रोल करने और आंतरिक शांति के लिए योगाभ्यास जरुरी है। योगाभ्यास भी भक्तिपूर्वक करनी है, क्योंकि यहीं बार-बार का योगाभ्यास हमें ईश्वर तक ले जाता है।