अपनी बात

उसे सारा शहर ‘लायन’ के नाम से जानता था, पर झारखण्ड के नेता खुद को ‘टाइगर’ कहलाना ज्यादा पसन्द करते हैं और पत्रकार भी ‘टाइगर’ कह गौरवान्वित होते हैं

70 के दशक में हिन्दी सिनेमा के सुप्रसिद्ध खलनायक रह चुके ‘अजीत’ को कौन नहीं जानता? फिल्म ‘कालीचरण’ में उनका बोला गया संवाद आज भी फिल्म में रुचि रखनेवालों के सिर चढ़कर बोलता है। डायलॉग था – ‘सारा शहर मुझे लायन के नाम से जानता है’, झारखण्ड में कुछ ऐसे राजनीतिज्ञ या राजनीति में रुचि रखनेवाले भी लोग हैं, जिन्हें ‘लायन’ कहलाना शायद पसन्द नहीं, वे स्वयं को ‘टाइगर’ कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं।

कई ऐसे हैं, जिन्होंने ‘टाइगर फोर्स’ ही बना रखी हैं, जिनमें कई दबंग हैं, तो कई अपनी जुझारु प्रवृत्ति के लिए जाने जाते हैं, पर सच्चाई यह है कि दबंग हो या जुझारु ये अपने-अपने क्षेत्र में लोकप्रिय हैं, तभी तो ये चुनाव भी जीतते हैं और जनता इन्हें माथे पर भी बिठाती हैं। नाम है – टाइगर जगरनाथ महतो, टाइगर ढुलू महतो और अब एक नया नाम जुड़ा हैं टाइगर जयराम महतो।

टाइगर जगरनाथ महतो झामुमो के टिकट पर डुमरी विधानसभा से चुनाव जीते हैं, और वर्तमान में राज्य के शिक्षा मंत्री है। दुसरी ओर टाइगर ढुलू महतो भाजपा के टिकट पर बाघमारा विधानसभा से चुनाव जीतते रहे हैं। ये दबंग है। इन पर एक नहीं, कई अपराधिक मामले धनबाद के विभिन्न थानों में दर्ज हैं। जबकि टाइगर जयराम महतो ने बड़ी कम ही समय में गजब कर डाला है, 1932 के खतियान को झारखण्ड में लागू कराने को लेकर, जयराम के द्वारा चलाया गया आंदोलन, जयराम को चर्चित कर डाला है। स्थिति ऐसी है कि राजनीतिक पंडित जयराम को सुदेश महतो की राजनीति के लिए खतरा बता रहे हैं।

कमाल है, भारतीय साहित्यों में सिंहपुरुष की बातें खूब कही गई है, कही भी टाइगर देखने, सुनने या पढ़ने को नहीं मिला, पर झारखण्ड के ये तीन स्वघोषित महान विभूतियां स्वयं को टाइगर कहलाना ज्यादा पसन्द करती हैं। स्वयं झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन कई मौकों पर जगरनाथ महतो को टाइगर कह कर स्वयं को अनुप्राणित भी करते हुए दिखे हैं।

रांची से प्रकाशित अखबार प्रभात खबर ने भी जगरनाथ महतो को टाइगर ही बताया है। बीच के पृष्ठों में जगरनाथ महतो को दिये एक विशेष पेज में प्रभात खबर ने लिखा है – ‘सवाल प्रभात खबर के, जवाब टाइगर के’। सच्चाई यह भी है कि एक बार सही मायनों में टाइगर, टाइगर जगरनाथ महतो और पत्रकार जिसने इंटरव्यू लिया या जिस संपादक के दिमाग में इस प्रकार की स्तुतियों से संबंधित पृष्ठ संजोने का दिमाग आया है, इन सभी के सामने प्रकट हो गया, तो सभी जान बचाने के लिए बगलें झांकते फिरेंगे।

पर क्या हैं टाइगर बोलने-पुकारने और टाइगर सुनने में सभी को मजा आता है। भाजपा के बाघमारा वाले टाइगर ढुलू के क्या कहने, उन्होंने तो टाइगर फोर्स ही बना रखा हैं, पर ये टाइगर फोर्स क्या करते हैं, उन्हीं से पूछिये तो वे बेहतर बतायेंगे, हमने तो आज तक कभी टाइगर फोर्स को सामाजिक क्रांति लाते तो नहीं ही देखा और रही बात नये जयराम महतो की तो अभी ये नये-नये राजनीति में उतरे हैं, देखिये ये क्या करते हैं, तभी कुछ कहना ठीक रहेगा?

आखिर लायन और टाइगर में क्या अंतर है? आखिर झारखण्ड के ये नेता स्वयं को टाइगर कहलाना क्यों पसन्द करते हैं, हमें आज तक समझ नहीं आया, जबकि हमारे पूर्वज कभी भी स्वयं को टाइगर कहलाना पसन्द नहीं किये, वो इसलिए कि टाइगर और लायन में एक खासियत होती हैं। टाइगर हमेशा आक्रामक होता हैं, वो हमेशा शिकार की तलाश में रहता हैं, पर लायन तभी आक्रामक होता हैं, जब उसे आवश्यकता होती हैं, वो बेवजह किसी भी वन्यप्राणियों को अपना शिकार नहीं बनाता, चाहे उसके सामने से कितने भी हिरण क्यों न निकल जायें, वो किसी को भी अपना शिकार नहीं बनाता। शेर ज्यादातर सौम्य, सरल व शांत होता हैं, शायद कुछ लोग जो आजकल बहुत काबिल बनते हैं, लायन के इस स्वभाव को उसकी आलस्यता से जोड़ रहे हैं, जो शर्मनाक है।

राजनीतिक पंडितों की मानें तो राजा भरत अपने बाल्यकाल में सिंह के बच्चों के साथ ही खेला करते थे, बाघ के साथ नहीं। बाघ या टाइगर कभी जंगल का राजा नहीं हुआ, जंगल का राजा आज भी लायन या सिंह ही होता हैं, पर झारखण्ड के राजनेताओं को टाइगर ही बनना है, चाहे प्रवर्तन निदेशालय के सामने घिग्घी ही क्यों न बंध जायें, पर बनेंगे टाइगर ही। कहलाना पसन्द करेंगे टाइगर ही। भले ही टाइगर के एक भी गुण शरीर में मौजूद नहीं हो, पर झारखण्ड के राजनीतिज्ञों को टाइगर ही बनना है, टाइगर ही कहलाना हैं, टाइगर बनकर ही राज करना है।

अंत में बिहार में एक सासाराम जगह हैं। जहां फरीद खां उर्फ शेरशाह का मकबरा है। रांची से सासाराम के लिए कई बसें और ट्रेनें हैं। ये तीनों टाइगर वहां जाकर उस मकबरे को देख सकते हैं और वहां कुछ सीख भी सकते हैं। शेरशाह का नाम पूर्व में फरीद खां था, लेकिन जब वह एक शेर से लड़ा और उस शेर को मौत का घाट उतार दिया, तभी लोगों ने फरीद खां को शेरशाह के नाम से पुकारा, ऐसे ही शेर उसे नहीं कह दिया या फरीद खां ने कहलवाना पसंद नहीं किया। अब इसी मुद्दे पर ये तीनों जगरनाथ महतो, ढुलू महतो और जयराम महतो क्या बता सकते हैं कि उन्हें उनके जीवन में अब तक कितने टाइगरों से पाला पड़ा हैं और उन टाइगरों से हुई भिड़ंत का क्या परिणाम निकला? उत्तर तो हमें मालूम हैं, पर शायद ये तीनों उत्तर कभी नहीं दे पायेंगे?