अपने शिष्य पर कृपा-वृष्टि करने के लिए एक सद्गुरु को शरीर में बने रहने की कोई आवश्यकता नहीं
जिस तरह पश्चिम में “फादर्स डे” और “मदर्स डे” मनाने का रिवाज है (अब तो यह भारत में भी प्रचलन में आ रहा है)। उसी तरह भारत में “गुरुज डे” मनाने की बहुत प्राचीन प्रथा है, लेकिन इसे हम “गुरु पूर्णिमा” के नाम से मनाते हैं, जो हर वर्ष “आषाढ़ पूर्णिमा” के दिन आता है। यह पर्व गुरु को समर्पित होता है और इस दिन पूरे भारत में शिष्य अपने गुरु की पूजा करते है और उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग पर निष्ठा के साथ चलते रहने का पुनः संकल्प लेते हैं।
आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाये जाने के कई ऐतिहासिक तथा पौराणिक कारण है। स्कन्द पुराण में लिखा है कि हजारों वर्ष पूर्व इसी तिथि को आदि गुरु शिव ने सप्तऋषियों को ब्रह्म के बारे में ज्ञानोपदेश देना आरम्भ किया था, तभी से इस तिथि को गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाया जाने लगा, क्योंकि इसी तिथि को गौतम बुद्ध तथा जैन तीर्थंकर महावीर ने अपने प्रथम शिष्य बनाए और गुरु के रुप में अपने कार्य की शुरुआत की, यह दिन बौद्धधर्म तथा जैनधर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र है।
इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं, क्योंकि महर्षि वेदव्यास, जिन्होंने वेदों का पुनर्गठन किया और महाभारत, श्रीमद्भागवत, तथा पुराणों की रचना की, और जो गुरुओं के गुरु माने जाते हैं, उनका भी जन्म इसी तिथि को हुआ, और इस वजह से भी इस आषाढ़ पूर्णिमा यानी गुरु पूर्णिमा का महत्व भी बढ़ जाता है। ऐसा कहा जाता है कि गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु तत्व की शक्ति हजारों गुणा अधिक रहती है, और इस पावन दिवस पर गुरु की पूजा करने से, गुरु के आशीर्वाद बाकी दिनों की तुलना में कही अधिक मात्रा में प्राप्त किये जा सकते हैं।
भारत में गुरु को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। संत कबीर ने यहां तक कह दिया कि शिष्य को भगवान से पहले गुरु की वंदना करने में संकोच नहीं करना चाहिए, उन्होंने कहा “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पायं। बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविन्द दियो बताय।” इस दोहे को पढ़ते समय हमें याद रखना चाहिए कि कबीर साहब यहां एक साधारण शिक्षक की नहीं, अपितु एक सद्गुरु की बात कर रहे हैं।
एक साधारण शिक्षक केवल सांसारिक ज्ञान दे सकता है, परंतु सद्गुरु योग्य शिष्य में दिव्य ज्ञान जागृत कर देते है, ईश्वर से मिलन करा देते हैं और त्रि-ताप से सदा के लिए मुक्त कर देते हैं। दूसरों में दिव्य ज्ञान जगा पाने के लिए गुरु में स्वयं दिव्य ज्ञान का होना आवश्यक है, इसीलिए ईश्वर प्राप्त संत ही सद्गुरु बन सकते है, और इसीलिए सद्गुरु का मिलना दुर्लभ कहा गया है। कबीर साहब ने कहा “यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीश दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।”
ऐसे ही एक सद्गुरु हुए, परमहंस योगानन्दजी। अपनी विश्व विख्यात पुस्तक “द आटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी” (हिन्दी में “योगी कथामृत”) में अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि का जो श्रद्धा-सिक्त और भाव परिपूर्ण चरित्र वर्णन उन्होंने किया, उसे पढ़कर गुरु और शिष्य, दोनों के चरणों में पाठक का मस्तक स्वयं श्रद्धा से झुक जाता है। अपनी पुस्तक का शुभारंभ परमहंस योगानन्दजी ने अपने गुरु का स्मरण करते हुए इस प्रकार किया “परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु शिष्य संबंध प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। इस खोज के मेरे अपने मार्ग ने मुझे एक भगवत्स्वरुप सिद्ध पुरुष के पास पहुंचा दिया, जिनका सुगढ़ जीवन युग-युगांतर का आदर्श बनने के लिए तरासा गया था, वे उन महान विभूतियों में से एक थे जो भारत का सच्चा वैभव रहे हैं।”
अपने गुरु के संदर्भ में लिखे गये ये सुंदर शब्द स्वयं योगानन्दजी के अद्भुत जीवन-चरित्र के लिए भी खड़े उतरते हैं, हालांकि उनका अधिकांश जीवन अमेरिका में योग प्रचार में बीता, उनकी गिनती भारत के महानतम संतों में की जाती है। पूरे पाश्चात्य जगत में आज अगर योग को इतनी स्वीकृति मिल रही है, इसका अधिकांश श्रेय परमहंस योगानन्दजी को जाता है, जिन्होंने संपूर्ण जीवन भारत और पश्चिम में क्रिया योग के प्रचार के लिए समर्पित कर दिया।
अपने योग संदेश का पूरे विश्व में प्रचार करने के लिए उन्होंने ही संस्थाएं स्थापित की। 1917 में भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया (मुख्यालय रांची, झारखण्ड) और 1920 में अमेरिका में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (मुख्यालय लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया) इन दोनों संस्थानों के द्वारा आज भी योगानन्दजी की क्रिया योग की शिक्षाएं सभी जिज्ञासुओं के लिए उपलब्ध है।
परमहंस योगानन्द जी का कहना था कि सभी सच्चे गुरु अमर होते हैं। अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करने के लिए और उन पर कृपा-वृष्टि करने के लिए एक सद्गुरु को शरीर में बने रहने के लिए कोई आवश्यकता नहीं होती। जो भी सच्चा शिष्य अपने गुरु की शिक्षाओं का निष्ठापूर्ण पालन करता है, वह अपने गुरु की जीवन्त उपस्थिति का अनुभव अवश्य करता है। वे कहते थे कि सद्गुरु अपने शिष्य के कुटस्थ (भूमध्य में स्थित विचार और संकल्प शक्ति का केन्द्र) में रहते हैं, और जब कोई शिष्य पूरे मन-प्राण से गुरु का स्मरण करता है, तो वह अपने गुरु को हमेशा अपने पास पाता है। अतः एक सद्गुरु और उनके सच्चे शिष्य में कोई दूरी नहीं रहती। अतः गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आइये, हम सब अपने सद्गुरु का भक्तिपूर्वक स्मरण करें और उनकी जीवन्त उपस्थिति और मार्गदर्शन का लाभ उठाएं।
(इस आर्टिकल के लेखक हैं – स्वामी ईश्वरानन्द गिरि, महासचिव, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया)