ये नये युग के संघ के प्रान्त प्रचारक हैं, विलासी जिंदगी जीने में रखते हैं दिलचस्पी
जिन्होंने श्रीश देव पुजारी, रामचन्द्र सहस्रभोजनी, राजाभाऊ, मधुसूदन देव, हरिश्चन्द्र भारद्वाज जैसे संत सदृश प्रान्त प्रचारकों को देखा हैं, वे पुराने स्वयंसेवक जब आजकल के प्रान्त प्रचारकों और उनकी शानो-शौकत जिंदगी बिताने के तरीके और दिलचस्पी को देख रहे हैं तो वे अवाक् हो जा रहे हैं। हम आपको बता दें कि झारखण्ड बनने के पहले, झारखण्ड का यह इलाका दक्षिण बिहार के नाम से जाना जाता था।
पूर्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बिहार में संघ कार्यों को देखते हुए, बिहार को तीन भागों में बांटा था। उत्तर बिहार, मध्य बिहार और दक्षिण बिहार। झारखण्ड बनने के बाद, मध्य बिहार को दक्षिण बिहार में बदलकर, बिहार को दो भागों में बांट दिया गया, यानी अब वर्तमान में उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार हैं और झारखण्ड बनने के पूर्व का जो इलाका दक्षिण बिहार के नाम से जाना जाता था, उसे झारखण्ड में बदल दिया गया, जिसका मुख्यालय रांची के निवारणपुर में स्थित हैं।
पुराने स्वयंसेवक जो पूर्व में सरकारी सेवा में थे, आज अवकाश प्राप्त कर लिये या जो विभिन्न व्यवसायों में आज भी अपनी सेवा दे रहे हैं, जब ऐसे स्वयंसेवकों से विद्रोही 24.कॉम ने बातचीत की, तब उनका कहना था कि जो पूर्व में संघ था, अब वो संघ कहा। सच्चाई यह है कि पूर्व के प्रान्त प्रचारकों को अपने इलाके में शाखा लगती है या नहीं, इसकी चिन्ता हुआ करती थी, आज जरा बताइये किस प्रान्त प्रचारक को इसकी चिन्ता है। पूर्व में प्रान्त प्रचारक कौन हैं? सारे के सारे स्वयंसेवकों को पता हुआ करता था, आज मैं रांची में हूं, हमको खुद नहीं पता कि हमारा प्रान्त प्रचारक कौन है? जब कि वर्तमान दौर सूचना क्रांति का है।
इन पुराने स्वयंसेवकों का कहना है कि आप इसे स्वीकार करें कि इस सूचना क्रांति के दौर में भी, लोग उसी को जानेंगे, उसी प्रान्त प्रचारक को जानेंगे, जो सही मायनों में संत होगा, जिसके लिए अमीर स्वयंसेवक और गरीब स्वयंसेवक में कोई फर्क नहीं होगा, जो सामान्य लोगों की तरह जिंदगी व्यतीत करेगा, जिसमें लोग अपना चेहरा देखेंगे, जब लोगों को अपना चेहरा प्रान्त प्रचारक में दिखाई ही नहीं पड़ेगा तो लोग उन्हें याद क्यों करेंगे?
पूर्व में संघ की ओर से ऐसे-ऐसे कार्यक्रम हुआ करते थे कि लोगों को अपने इलाके में कौन-कौन स्वयंसेवक हैं, इसकी जानकारी दिमाग में बैठी रहती थी, अब तो किसी को, किसी से कोई मतलब ही नहीं। उसका मूल कारण आज के प्रान्त प्रचारकों का विलासी जीवन व्यतीत करना तथा स्वयंसेवकों के प्रति उदासीन हो जाना है।
लोग कहते हैं कि संघ के जो पैसे होते हैं, वे सामान्य पैसे नहीं होते, वे देवकार्यों के लिए हैं, वे सेवा के लिए हैं, वे जनसामान्य में रहनेवाले भारत के पैसे हैं, उनका खर्च कैसे हो? कहां हो? इसकी चिन्ता पूर्व के प्रान्त प्रचारक किया करते थे, पर जरा आज देखिये, क्या हो रहा है? आज का प्रान्त प्रचारक आन-बान-शान से भारी भरकम फौज इकट्ठी कर, भजन मंडली इकट्ठी कर, महारुद्राभिषेक करता हैं, अरे भाई ऐसा करने की जरुरत ही क्या है? पूर्व में भी नाना प्रकार के पूजन कार्यक्रम संघ कार्यालय में हुआ करते थे, पर ऐसा तो नही था, इसका प्रदर्शन तो नहीं हुआ करता था, जो प्रान्त प्रचारक हुआ करते थे, वे अपने स्वाभावानुसार संयमित जीवन बिताते हुए, संयमित पुरुष की तरह पूजा अर्चना भी करते थे, कोई दिखावा नहीं होता था, क्योंकि वे जानते थे कि उनके ऊपर जो पैसे खर्च हो रहे हैं, वे सामान्य जन के द्वारा दिये गये गुरु दक्षिणा के पैसे हैं, जो स्वयंसेवक अपने प्रिय गुरु भगवा ध्वज को प्रदान करता है, वह इसलिए तो नहीं देता कि उसके पैसे दिखावे या शानो-शौकत में, फिजूल में खर्च हो।
लोग कहते है कि हमलोगों ने एक प्रान्त प्रचारक दत्तोपंत ठेंगरी जी को भी देखा हैं, जिन्होंने बिहार में कभी भी प्रान्त प्रचारक के रुप में सेवा नहीं दिया, पर वे जब तत्कालीन दक्षिण बिहार (अब झारखण्ड) आते थे, तो उनकी सादगी देखकर हमलोग पुलकित हो जाते थे, हमलोग भी उनके जैसा बनने की कोशिश करते थे, कि जब वे एक धोती, एक गमछे, एक गंजी से काम चला सकते हैं तो हम क्यों नहीं? पर आज के प्रान्त प्रचारक को देखिये, उसे इतने कपड़ें चाहिए, ताकि वो हर कार्यक्रम के अनुसार राजनीतिज्ञों की तरह कपड़ा बदलते रहे, उसे अमीरों के यहां के भोजन पसंद हैं, उसे कहीं आने – जाने के लिए चार चक्का चाहिए, जबकि पहले का प्रान्त प्रचारक अपने सामान्य स्वयंसेवकों की भी सुधि लेता था, तथा उसके यहां की जो भी रुखी-सूखी रोटी रही, उसके यहां खाकर निहाल हो उठता था।
एक स्वयंसेवक ने विद्रोही 24.कॉम को बताया कि एक बार दत्तोपंत ठेंगरी जी को दिल्ली से धनबाद आना था, किसी कारण से जिस ट्रेन से वे आनेवाले थे, वे धनबाद नहीं पहुंच सके, तभी वे दूसरी ट्रेन से धनबाद आये, तब तक जो लोग उन्हें रिसीव करने आये थे, जा चुके थे, उन्होंने लोगों से संघ कार्यालय का पता पूछा, लोगों ने नहीं बताया, तभी उन्होंने एक रिक्शा पकड़ी और रिक्शवाले को भाजपा कार्यालय चलने को कहा, उन्होंने सोचा कि भाजपा कार्यालय में लोग संघ कार्यालय का पता बता ही देंगे।
इसी बीच जब वे भाजपा कार्यालय पहुंचे, तभी वहां उपस्थित लोगों से उन्होंने संघ कार्यालय का पता पूछा, इसी दरम्यान अजय त्रिवेदी के भाई को यह पहचानते देर नहीं लगी, कि पता पूछनेवाला व्यक्ति कोई साधारण व्यक्ति नहीं, दत्तोपंत ठेंगरी जी हैं, जिन्होंने विश्व का सबसे बड़ा मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थियों का बड़ा संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच को जन्म दिया है, उन्होंने तुरन्त उनका अभिवादन किया, सम्मान दिया और धनबाद के टुंडी में जहां संघ शिक्षा वर्ग चल रहा था, वहां तक पहुंचवाने का काम किया। ऐसे थे दत्तोपंत ठेंगरी, ऐसा था उनका जीवन, कोई शान-शौकत नहीं, सादगी भरा जीवन।
इसी झारखण्ड में लोगों ने श्रीश देव पुजारी जैसे संत प्रान्त प्रचारकों को देखा है, जो सादगी जीवन व्यतीत करते थे, उन्हें जो कपड़े मिलते थे, वे कपड़ें भी गरीबों में बांट दिया करते, एक बार जब वे प्रान्त प्रचारक का कार्य यहां संपन्न कर, दूसरे स्थान के लिए विदा ले रहे थे, तो लोगों ने विदाई के अवसर पर कई प्रकार के वस्त्र व शॉल भेट किये। श्रीश देव पुजारी ने वे सारे कपड़े धनबाद के निर्धन कुलियों में बांट दिये।
और अब के प्रान्त प्रचारकों की हरकत देखिये, उसका समय अब मुख्यमंत्री आवास तथा राजनीतिज्ञों के गणेश परिक्रमा करने में ज्यादा व्यतीत हो रहा हैं, आज के प्रांत प्रचारक पूंजीपतियों को कैसे लाभ मिले और उसका फायदा वे कैसे उठाएं, इस पर ज्यादा ध्यान रहता है। वे चार चक्का का इंतजार करते है, ताकि पूंजीपतियों के घर के बने सुस्वादु भोजन का आनन्द ले सकें। वे महारुद्राभिषेक का संघ कार्यालय में इस प्रकार आयोजन करते हैं, कि जैसे लगता हो कि उन्होंने कोई बहुत बड़ा काम कर दिया हो, और आज के स्वयंसेवक उसका प्रचार-प्रसार का जिम्मा सोशल साइटों के माध्यम से उठाते हैं।
आज का संघ प्रचारक, अपने परिवार में हो रही शादी को शाही शादी में परिवर्तित करा देता है, चून-चूनकर सत्ता में शामिल लोगों को आमंत्रित करवाता है, ताकि उसका फायदा उसे मिले, जब इसकी शिकायत नागपुर स्थित कार्यालय पहुंचती है, तो नागपुर कार्यालय इसकी जांच करवा कर, सहीं पाये जाने पर, उन्हें प्रान्त प्रचारक के दायित्व से मुक्ति देकर, दूसरे स्थानों पर स्थानान्तरित करता है, जो बताता है कि आज के प्रान्त प्रचारकों की सोच और उनके कार्यों में कितना बदलाव आया है, अगर ऐसा ही हाल रहा तो संघ से लोगों को जुड़ाव धीरे-धीरे खत्म हो जायेगा, जो ईमानदार हैं, चरित्रवान हैं, नैतिकवान हैं, दूरियां बनायेंगे और फिर उसके बाद क्या होगा? संघ होगा, प्रान्त प्रचारक होंगे, पर इस संघ में ईमानदार, नैतिकवान और चरित्रवान खोजने पर नहीं मिलेंगे।
अब सवाल उठता है कि क्या संघ की स्थापना केशव बलिराम हेडगेवार जी ने इसीलिये की थी? प्रचारकों की परिकल्पना इसीलिए की थी? जब प्रचारक फिजूल खर्ची करेंगे, शानो-शौकत वाली जिंदगी बिताने की सोचेंगे, हिन्दू समाज की चिन्ता छोड़कर अपने परिवार की चिन्ता करने लगेंगे, नेताओं की गणेश परिक्रमा करने लगेंगे, पूंजीपतियों की सेवा करने लगेंगे, नेताओं से पैरवी करवाकर अपने लोगों को उनके इच्छानुसार स्थानों पर बिठाने लगेगें तो देश का तो बंटाधार ही हो जायेगा।