ये हैं इन संगठनों का चाल-चरित्र, चूंकि जलकर मरनेवाला और जलाकर मारनेवाला दोनों एक ही समुदाय के थे, इसलिए सारे वामपंथी-मानवाधिकार संगठनों व एक खासग्रुप के मीडिया समूहों ने आंदोलन करना तो दूर, सीधे चुप्पी साध ली
क्योंकि तृणमूल कांग्रेस-ममता बनर्जी द्वारा शासित बंगाल के वीरभूम में हुए मॉब लिंचिंग में जलकर मरनेवाला भी मुसलमान था, उन्हें जलानेवाला भी मुसलमान था, जिसको लेकर इतनी बड़ी मॉब लिंचिंग हो गई, वो भी मुसलमान था इसलिए इस पर न तो कोई मुस्लिम संगठन आंदोलन करेगा, न ही वामपंथी संगठन आदोलन करेगा, न भाजपा छोड़कर कोई राजनीतिक संगठन आंदोलन करेगा और न ही वो मानवाधिकार व एनजीओ संगठन आंदोलन करेगा, जो हाथरस व लखीमपुर खीरी के मामले में खुलकर पिछले दिनों छाती पीट रहा था, जो आज भी कश्मीरी हिन्दूओं पर हुए अत्याचार को लेकर सत्य पर आधारित बनी फिल्म #TheKashmirFiles के खिलाफ प्रोपेगंडा फैला रहा हैं।
कमाल है न। कितनी सुंदर विचारधारा है। भाजपा शासित किसी भी राज्य में अगर एक चोर की भी मॉब लिंचिंग हो जाये, या मर जायें, तो उसके लिए इतना हाय तौबा मचवा दो, सड़क से लेकर संसद ही नही, बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ तक बावेला मचा दो, मोदी-योगी को मुस्लिमों का कट्टर महादुश्मन सिद्ध कर दो और जब अपने उपर कालिख पुतने की बारी आये तो चुप्पी साध लो।
जहां मैं रहता हूं, उस शहर का नाम हैं – रांची। झारखण्ड की राजधानी है। यहां कई वामपंथी संगठन हैं। मानवाधिकार संगठन व मुस्लिम संगठन हैं, जो इन सारी बातों को लेकर आंदोलन करते रहते हैं। एक-दूसरे का साथ दे रहे होते हैं। बैनर-पोस्टर लेकर सड़कों पर उतरते रहते हैं, पर जरा देखिये, एक सप्ताह होने को आये, वीरभूम कांड को। सभी ने चुप्पी साध रखी हैं। सोचता हूं कि अगर बंगाल में इस समय भाजपा का शासन होता तो क्या होता?
जाहिर हैं ये अब तक सड़कों पर हाय-तौबा मचा रहे होते हैं, अब चूंकि ये घटना बंगाल में हुई हैं। बंगाल में ममता बनर्जी का शासन हैं, ले-देकर कुछ भी हो, वहां भाजपा का शासन तो नहीं हैं न। इसलिए चुप्पी साध लो। अब सवाल उठता है कि क्या इस देश में या राज्य में इसी प्रकार की राजनीति या आंदोलन चलेगी, मुंह देखकर लोग आंदोलन करेंगे तो ऐसे में तो आम जनता पिसती चली जायेगी और ये आंदोलनजीवी खुद को मस्त करते चले जायेंगे।
इसलिए इस आलेख को लिखने का मतलब सिर्फ इतना है कि आम जनता को समझना चाहिए कि जिन्हें वे अपना समझ रहे हैं, दरअसल वे आपके अपने नहीं, उनकी नजरों में आप चूल्हें में झोंकनेवाले लकड़ियां, गोईठा अथवा कोयले से अधिक कुछ भी नहीं, इसलिए जो भी आप निर्णय लें, सोच समझकर लें, इनके चक्कर में तो नहीं ही पड़े। जब हमने इस मुद्दे को सोशल साइट पर उठाया तो कुछ लोगों ने इस पर अपनी बातें खुलकर रखी। आइये देखते हैं, उन्होंने क्या कहा?
अलका मिश्रा कहती है कि बिल्कुल सही सवाल है। ये वामपंथी अपने इसी दोहरे चरित्र के कारण आज विलुप्ति के कगार पर हैं और रही बात मानवाधिकार संगठनों की तो यह किसी से छूपा नहीं हैं कि तथाकथित तमाम मानवाधिकार संगठन अलग-अलग नामों से विभिन्न एनजीओ की दुकानें खोलकर बैठें हैं और स्वयं को क्रांतिकारी एक्टिविस्ट जैसे पदनाम से सुशोभित कर सरकारी व विदेशी फंड बटोरने में लगे हुए हैं। सारांश में जिनकी नियत खुद पारदर्शी नहीं हो, वो वीरभूम जैसी घटनाओं का विरोध कैसे करेंगे फिर वो चाहे वामपंथी हों या मानवाधिकार संगठन।
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेन्द्र नाथ लिखते है कि देश की आम जनता भी समझ चुकी है कि ये सभी विपक्षी पार्टियां, सेक्युलर, लिबरल वामपंथी और “सुपारी मीडिया” वहीं जाकर अपनी छाती पीटकर लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देते हैं, जहाँ भाजपा का शासन है। बाकी किसी भी प्रदेश में कितनी भी बड़ी घटना क्यूं न हो जाये ये लोग एक “विशेष खामोशी” धारण कर लेते हैं। इनलोगों की इस ख़ामोशी की पोल बहुत हद तक खुल चुकी है, जो कुछ बचा है वो भी बहुत जल्द खुल जायेगा। इनलोगों का यह रवैया भाजपा को बहुत फ़ायदा पंहुचा चुका है और आने वाले समय में पँहुचायेगा भी।
आश्चर्य यह भी है कि इन मुद्दों को लेकर राष्ट्रीय स्तर की मीडिया भी दो भागों में बंट चुकी हैं, फिलहाल लखीमपुर खीरी और हाथरस में अपनी माथा पीट रही राष्ट्रीय स्तर की मीडिया और पत्रकारों का समूह अपनी होठ सील चुका हैं यानी यहां की मीडिया कैसे भाजपा के खिलाफ जमकर आग उलगती हैं और दूसरों की कारगुजारियों पर कैसे पर्दा डालती हैं, उसका भी एक सुंदर उदाहरण है- वीरभूम की घटना और उसके बाद के इन संगठनों के चाल-चरित्र।