अपनी बात

सीएमओ के वे घटिया सलाहकार, झूठे केस में फंसानेवाले धुर्वा थाना व झारखण्ड पुलिस के अधिकारियों के समूह, अखबारों व उनके पत्रकारों की घटिया सोच व एक प्रतिबद्ध पत्रकार की व्यथा – तीन

इसी बीच निचली अदालतों में डेट का खेल शुरु हो गया। जब भी डेट पड़ती। मैं बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी अधिवक्ता यानी धर्म की छोटी बहन पूजा मिश्रा के साथ अदालत में पहुंच जाता। फिर देखते ही देखते दूसरा डेट मिल जाता और मैं फिर आनेवाली तारीख को अदालत में पहुंचने का तैयारी करने लगता व उसका इंतजार करने लगता। यह घटना हमारी नित्यकार्य में शामिल हो गया था।

प्रतिदिन ईकोर्ट रांची का साइट खोलना और अपना एफआइआर नंबर से अपने केस की स्थिति देखना एक हमारे लिये जुनून बन चुका था। इसी बीच जिन्होंने हमारे उपर केस किये थे। उनके आज तक हमें दर्शन नही हुए थे। बड़ी इच्छा थी कि जिन महापुरुष ने हमारे उपर जिनके कहने पर केस किये, जरा उन्हें देखूं। लेकिन ये इच्छा धरी की धरी रह गई।

एक दिन एक डेट पर एक जगह चढ़ावा लेनेवाले सज्जन यह भूल गये कि मैंने उन्हें चढ़ावा दिया या नहीं। फिर क्या था, उक्त सज्जन ने उस दिन की हाजिरी ही खत्म करवा दी और कह दिया कि मैं उपस्थित ही नहीं हुआ। इस पर मैं कहा चुप रहनेवाला था। मैंने उक्त सज्जन को कह दिया कि पूरी अदालत की सीसीटीवी एक महीने पहले की दिखलाने की आवेदन दे डालूंगा। मुझे चुनौती न दें। उक्त महानुभाव ने दुबारा कुछ पैसे ले ही लिये और उसके बाद बीते गये दिन की हाजिरी के कागजात भी जनाब को मिल गये।

इसी बीच मैंने पूजा को कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि मुझे जल्द न्याय मिले। पूजा ने कहा कि इसके लिए हाईकोर्ट में क्वैशिंग के लिए पिटीशन डालना पड़ेगा। उसमें काफी पैसे खर्च होंगे। मैंने कहा कि इसमें कौन से पैसे कम खर्च हो रहे हैं। देखों वहां क्या प्रक्रिया है? पूजा ने झारखण्ड हाई कोर्ट में क्वैशिंग के लिए याचिका डाल दी। क्वैशिंग के लिए याचिका डालने के बाद वहां प्रक्रिया प्रारंभ हो गई।

यहां केस डालना सचमुच सामान्य लोगों के वश की बात नहीं। गरीब तो निश्चय ही मर जायेगा। ऐसे भी गरीब तो मरने के लिए ही पैदा होता है। लेकिन मैंने यह देखा और महसूस किया कि यहां के न्यायाधीश अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार होते हैं। ये अन्य जगहों की तरह नहीं होते कि कोई भी व्यक्ति न्याय मांगने कही जाये और उसे न्याय मिले ही नहीं, न्याय मिलने की यहां पूरी गारंटी दिखती है।

एक दिन हाई कोर्ट में आनन्द सेन की अदालत में हमारा केस लगा। मैं उस अदालत में मौजूद था। मोबाइल और कागजात पहले ही जमा करवा लिये गये थे। मेरी अधिवक्ता पूजा और कंचन दोनों आनन्द सेन की अदालत में खड़ी थी। इन दोनों को बहस करने की जरुरत भी नहीं पड़ी। न्यायाधीश आनन्द सेन के मुख से निकला – ओह रामजी और यह कहकर मुस्कुरा दिये।

उन्होंने तुरन्त आदेश में यह कहा कि दूसरे संबंधित व्यक्ति को इसकी सूचना दी जाये और निचली अदालत में अभी से ही इस मुद्दे पर तत्काल सभी कार्रवाई पर रोक लगा दी जाये। जैसे ही यह आदेश हाई कोर्ट से प्राप्त हुआ। फिर इस कागजात को लेकर निचली अदालत में हमदोनों ने इसे जमा करवा दिया। हमें बड़ी ही राहत मिली।

और इसी बीच कोरोना ने दस्तक दे दिया। कोरोना ने जैसे हर व्यक्ति, समाज और देश को जैसे अपने आगोश में लिया था। कोरोना ने हमारे केस को भी प्रभावित किया। नहीं तो, केस जल्द ही समाप्त होता। केस कोरोना के कारण बहुत ही लेट हो गया। हमें कुछ पता भी नहीं चल रहा था कि हो क्या रहा है। मैं बार-बार पूजा से पूछता कि बताओ, केस की क्या स्थिति है।

पूजा यही कहती कि आपको क्या दिक्कत है, बेल आपको मिला ही हुआ है, स्टे हाई कोर्ट ने लगा ही दिया है, निचली अदालत कुछ कर ही नहीं सकती। वक्त का इंतजार करिये। पूजा की बातें हमें गजब लगती। लेकिन करेंगे क्या, अधिवक्ता की बात तो माननी ही पड़ेगी। मैं बिना किन्तु-परन्तु के उसकी बातें मान लेता। लेकिन मुझे इसका आभास रहता कि कही न कही कुछ गड़बड़ है।

इसी बीच फरवरी 2023 में मेरे छोटे बेटे के नवजात शिशु ने दम तोड़ दिया। मैं बहुत टूट चुका था। दुनिया में मेरा कद बड़ा हुआ था। लेकिन ईश्वर ने उसे भी छीन लिया। मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। परिवार को संभालना था। बहू-बेटे, पत्नी सभी को फिर से उबारने की जिम्मेवारी, अपना केस की पीड़ा सो अलग। इसी बीच एक दिन कुछ बात को लेकर राजेश कृष्ण ने हमसे बातचीत की।

राजेश कृष्ण ने चूंकि हमें बहुत मान देते हैं। उन्होंने शायद कुछ पूजा को कहा होगा। पूजा ने हमारी ऐसी झार लगा दी कि मुझे कुछ समझ ही नहीं आया और इसके बाद हमारे संबंधों में उसके तरफ से कड़ुवाहट आ गई। जिसका प्रभाव केस पर दिखा। इसी बीच फरवरी 2024 में बड़ी बहू ने एक और छोटी बच्ची को जन्म दिया। मेरे लिए यह खुशियां हमें ऐहसास दिलाने के लिए शायद आई थी कि कुछ अच्छा होगा।

चूंकि मैं पहले बुरी तरह अस्पताल के चक्कर में फंसकर एक साल पहले पोते को गवां चुका था। इसलिए हमने पहले से ही रांची के एक एमडीएलएम हास्पिटल में बहू को एडमिट करा दिया था। वहां की डा. अर्चना पाठक और वहां की सभी नर्सों के सेवाभाव को देखकर मेरा हृदय भाव-विभोर था। लगा ही नहीं कि मैं हास्पिटल में हूं। घर के जैसे हालात थे। कही कोई दिक्कत ही नहीं हुआ। आराम से हमलोग बच्ची को लेकर अपने घर आ गये। घर में लगा कि नया मेहमान के आने से कुछ तब्दीलियां आई है। ऐसे भी जब कुछ अच्छा होनेवाला होता हैं तो वह कुछ न कुछ संदेश दे ही जाता है। लेकिन वो संदेश क्या होनेवाला है, इसका ऐहसास हमें नहीं था। (जारी)