“सुनिए सरकार, मर रहे हैं पत्रकार” लिखनेवालों, आपने ये क्यों नहीं बताया कि दिवंगत 17 पत्रकार किस संस्थान में काम करते थे? आपने श्रद्धाजंलियों पर कैंची कैसे चला दी?
झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन को पता हैं, यहां के विपक्षी दलों के नेताओं को पता हैं, यहां तक की झारखण्ड विधानसभाध्यक्ष को भी मालूम है, विभिन्न प्रकार की एनजीओ चलानेवाले लोगों को भी पता है कि राज्य में किन-किन मीडिया संस्थानों में काम करनेवाले पत्रकार अब तक कोरोना काल में मर चुके हैं और कितने अभी विभिन्न अस्पतालों में जीवन और मौत से जूझ रहे हैं।
पर दुर्भाग्य इन पत्रकारों का देखिये कि जिन संस्थानों के लिए काम करते हैं, उन संस्थानों तक को पता नहीं है कि उनके यहां काम करनेवाला पत्रकार दिवंगत हो चुका है, अगर ऐसा होता तो उनके ही संस्थानों में काम करनेवाले इन दिवंगत पत्रकारों के समाचार या नीचे चलनेवाली पट्टी पर वो खबरें जरुर होती, जो आज प्रभात खबर में उनके फोटो के साथ तो छप गई, लेकिन यह नहीं छपी कि ये 17 पत्रकार किन-किन संस्थाओं में काम करते थे?
कमाल देखिये, प्रभात खबर ने 17 दिवंगत पत्रकारों से संबंधित समाचार तीन पृष्ठों पर प्रमुखता से छापे हैं। एक प्रथम पृष्ठ पर, दूसरा पांचवे पेज पर, तीसरा अंतिम पृष्ठ पर। लेकिन पूरा समाचार पढ़ जाइयेगा, पर आपको यह लिखा नहीं मिलेगा कि ये पत्रकार कहां काम करते थे? कमाल यह भी है कि इस अखबार को यह पता है कि कौन कहां का हैं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि ये सब कहां और किसके लिए काम करते थे? शायद अखबार चलानेवालों व संपादकों की एक पॉलिसी होती है कि तुम हमारी मदद करो और हम तुम्हारी मदद करेंगे। यानी कौन कहां काम करता है, ये तुम मत बताओ, हम भी नहीं बतायेंगे।
अब सवाल उठता है कि जब आप ये बताने के लिए तैयार नहीं हो, कि ये पत्रकार कहां काम करते थे? तो फिर आप सरकार से ये गुहार क्यों लगा रहे हो? कि “सुनिए सरकार, मर रहे हैं पत्रकार”। जब आप अपना पहला दायित्व जो मानवीय मूल्यों को जन्म देता हैं, वहीं निभाने को तैयार नहीं हो, मतलब ये कहने को तैयार नहीं हो कि ये पत्रकार किस संस्थान के लिए काम करते थे, तो फिर आपको सरकार से गुहार लगाने का क्या नैतिक दायित्व है?
राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने तो कल ही दो पत्रकारों के निधन पर जो श्रद्धाजंलि प्रकट की थी, उसमें उन्होंने इन दोनों पत्रकारों के संस्थानों के नाम का भी जिक्र किया था, इसी प्रकार अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी श्रद्धाजंलि प्रकट किया था, जिसमें इन पत्रकारों के संस्थानों के नाम तक के जिक्र थे, पर आपने क्या किया? इनके श्रद्धाजंलियों पर भी कैंची चला दी, उन श्रद्धाजंलियों में से सब कुछ रखा, लेकिन संस्थानों के नाम उड़ा दिये? आखिर ये सब क्या बताता है?
अखबार लिखता है कि “पत्रकारों के हक और उनके परिवार की बेहतरी के लिए मीडिया हाउस को भी आगे आना होगा”। अरे भाई जो मीडिया हाउस ये बताने को तैयार नहीं कि फलां मृत पत्रकार किस संस्थान का है, वो इनका भलाई क्या करेगा? कल ही मैं देख रहा था कि एक राष्ट्रीय चैनल “आज तक” में काम करनेवाला पत्रकार इस दुनिया में नहीं रहा, उस राष्ट्रीय चैनल तक में भी उसकी खबर नहीं चली, न पट्टी चली।
ये वही चैनल है, जिसे अपने एंकर रोहित सरदाना को श्रद्धाजंलि देने में दिक्कत हो रही थी, और जब सोशल साइट पर इसके लिए उन्हें गालियां मिलने लगी, तो बहुत ही अच्छा ड्रामा इन सभी ने खड़ा कर दिया। ऐसे तो रोहित सरदाना बहुत बड़े पत्रकार हो गये थे, ऐसे लोग बड़े-बड़े पैकजों पर काम करते हैं, इनका क्या? सब कुछ ठीक है, पर जो छोटे-मझौले पत्रकार हैं, जो संस्थानों में काम करते हैं, पर संस्थान उन्हें अपना नहीं मानता, ऐसे संस्थानों पर आप क्या कहेंगे?
अभी आज ही देखा हूं कि एक बंदा, एक राष्ट्रीय/क्षेत्रीय चैनल का कही से स्टिंगर बना है, और उसे अपने फेसबुक सोशल साइट पर डालकर उछल रहा हैं, जैसे लग रहा है कि उसे पद्मश्री मिल गई, पर उसे नहीं पता कि जिसे पाकर उसे खुश है, वह किसी को हटाकर, उसे दिया गया है, और जिसे हटाया गया है, उसे दो जून की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं है। ऐसे कई पत्रकार है, जिन्हें बिना कहे-सुने रास्ते से हटा दिया जाता है, वे कुछ बोल भी नहीं पाते। खुलकर बोलूं तो ये पत्रकार मनरेगा मजदूरों से भी नीचे के पायदान पर हैं, पर झूठी इज्जत को लेकर इतनी शान बघारते हैं, कि क्या कहे?
ये कहेंगे कि मेरा मुख्यमंत्री से परिचय है, फलां आइएएस-आइपीएस मुझे जानता है, दिल्ली से लेकर तक मुंबई हमारी चलती है, पर सच्चाई क्या है, जब वो मरता हैं तो उसकी पत्नी और छोटे से बच्चे पर क्या गुजरती है, यह देखकर दिल दहल जाता है। आखिर कौन है? इसके लिए जिम्मेवार, जरा सोचियेगा। दिल्ली में बैठा एनडीटीवी का एंकर रवीश कुमार अपने खास चाहनेवालों के लिए अपील करता हैं और ऐसे ही लोग उनके एक अपील पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं, पर जब इनकी बारी आती है, तो पूछिये वो रवीश कुमार से कि वो क्या करता है? इसलिए हम हवाबाजी में क्यों जिये, स्वयं को क्यों नहीं शक्तिशाली बनाते? हम क्यों नहीं चरित्र व ईमान के आभूषण से अलंकृत होकर समाज व देश को झकझोरते हैं, क्या हमने अब्दुर्रहीम खानखाना का वो दोहा नहीं पढ़ा…
सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय।।
मैंने तो देखा कि एक चैनल का बंदा जो स्वयं को महान से कम नहीं समझता, उसने कल दिवंगत हुए चैनल के एक पत्रकार को जो श्रद्धाजंलि दी हैं, वो श्रद्धाजंलि है या गाली उसे पता ही नहीं है? अगर मैं उसे इस आलेख में स्थान दूं तो यह एक सामान्य मानव का भी अपमान है, खैर आजकल तो पत्रकार भी तो महान ही हो रहे हैं, गिरावट आई हैं तो यहां भी गिरावट है, झेलना ही पड़ेगा।
कुल मिलाकर, मतलब क्या निकला… पत्रकार मरा है, मर रहे हैं, पर मीडिया हाउस समाचार छापेंगे, पर ये नहीं बतायेंगे कि वो कहां और किसके लिए काम करता था? अगर कोई नेता बतायेगा भी, तो उसके बयान पर कैंची चला देंगे, ताकि पता ही नहीं चले कि वो बंदा किस संस्थान में काम करता था? सरकार से हर प्रकार की सहायता मांगेगे, पचास लाख की सहायता मांगेगे, पर अपनी ओर से एक दमड़ी भी नहीं देंगे? शराब और फालतू चीजों पर अनाप-शनाप खर्च करेंगे, लेकिन अपने भविष्य की चिन्ता नहीं करेंगे? अरे भाई पहले खुद सुधरिये और जहां काम करते हैं, वहां के मालिकों/संपादकों का गर्दन पकड़िये, कहिये कि सरकार बाद में जो करेगी, सो करेगी, हमने आपके संस्थान के लिए पसीना बहाया, मेरे लिए भी आप कुछ करो, और कुछ नहीं तो मरने के बाद कम से कम ये तो कहो कि हमने तुम्हारे संस्थान में काम किया?