जीवन को धन्य करने के लिए ईश्वर ने मनुष्य को तीन अमूल्य उपहार दिये हैं, एक मानव शरीर, दूसरा ईश्वरीय अनुभूति और तीसरा सद्गुरु की तलाश करने की क्षमताः ब्रह्मचारी सौम्यानन्द
जगद्गुरु शंकराचार्य ने कहा था ईश्वर ने मनुष्य को तीन अमूल्य उपहार दिये हैं। पहला – मानव शरीर, दूसरा – ईश्वर को जानने की इच्छा तथा तीसरा सद्गुरु की तलाश की क्षमता। ये तीन अमूल्य उपहार ऐसे हैं, जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन को धन्य कर सकता है। लेकिन खुद की अनिच्छा के कारण मनुष्य अपने जीवन को स्वयं नष्ट करने पर आमदा रहता है। ये बाते आज ब्रह्मचारी सौम्यानन्द ने योगदा सत्संग आश्रम में आयोजित रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए कही।
उन्होंने कहा कि जगद्गुरु शंकराचार्य के बताये इन तीन अमूल्य उपहारों पर ध्यान दें, तो ये तीनों बातें आध्यात्मिक जीवन को सार्थक बनाने के लिए बहुत ही जरुरी है। जैसे- पहला, मानव शरीर – दुनिया में सिर्फ एक मानव शरीर ही हैं, जिसके द्वारा सत्य/ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है, पशु शरीर के द्वारा कभी भी सत्य/ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ब्रह्मचारी सौम्यानन्द ने कहा कि केवल मनुष्य में ही चक्र होते हैं, जिन चक्रों को जगाकर स्वयं को ईश्वर से एकाकार कर सकता है।
उन्होंने कहा कि केवल मनुष्य को ही ईश्वर ने विवेक दिये हैं, जिसके बल पर मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। उन्होंने कहा ऐसे तो दस लाख वर्ष तक रोगमुक्त होने के बाद ही जीवन यापन करते हुए कोई मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। लेकिन ये इतना आसान भी नहीं। लेकिन अपने गुरुदेव ने क्रियायोग का मार्ग जो बताया है, उसके बल पर आप या हम इस दस लाख वर्ष को कम कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि केवल क्रियायोगी ही ईश्वर को जल्द प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं, दूसरा कोई नहीं।
उन्होंने दूसरे अमूल्य उपहार ईश्वर को जानने की इच्छा के बारे में बताते हुए कहा कि ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं कि वे किसलिये जी रहे हैं। लेकिन जीये जा रहे हैं। अपनी तथा अपने परिवार की सुख-सुविधाओं को इक्ट्ठा करने के लिए और इसी चक्कर में ये दुर्लभ मानव शरीर जो ईश्वर को प्राप्त करने के लिए मिला है, गवां बैठते हैं। जबकि दुनिया में कई ऐसे मनुष्य भी हैं, जो अपने तथा अपने परिवार की सुख-सुविधा का ध्यान रखने के बावजूद भी जीवन के मूल लक्ष्य को नहीं छोड़ते और आध्यात्मिक पथ पर अपना कदम बढ़ा देते हैं और अपने जीवन को धन्य कर बैठते हैं।
उन्होंने कहा कि गुरु और आपका जो संबंध है, उसे अत्यंत गोपनीय बनाये रखिये। कभी ये न कहिये कि हमने सत्य को जान लिया। हम बहुत तेजी से ईश्वर को पाने की ओर बढ़ रहे हैं। अगर ऐसा करेंगे तो आप सत्य/ईश्वर से दूर होते चले जायेंगे। उन्होंने इसी पर एक सुंदर कथा सुनाई। एक बार एक भक्त ईश्वर के साथ समुद्र के किनारे विचरण कर रहा था और आकाश में उसे उसके पिछले व्यतीत हुए जीवन के दृश्य आ-जा रहे थे। वो देख रहा था कि जब सुख के बादल उसके जीवन में छाये थे तो दो-दो पदचिह्न दिखाई दे रहे थे। वो पद चिह्नों में एक तो उसके और दूसरे ईश्वर के दिखाई दे रहे थे।
लेकिन जब उसके जीवन में दुख के बादल आये तो उसने देखा कि केवल एक ही पद चिह्न दिखाई पड़ रहे थे। ऐसा देख, उनसे ईश्वर से पूछा कि जब सुख के बादल थे तो आप मेरे साथ थे, दुख के बादल आने पर केवल एक ही पद चिह्न क्यों दिखाई पड़ रहे हैं, आप के पदचिह्न क्यों नहीं दिख रहे। ईश्वर ने कहा कि जब दुख के बादल छाये थे, तब हमने तुम्हें गोद में उठा रखा था। इस कथा के माध्यम से ब्रह्मचारी सौम्यानन्द ने स्पष्ट कर दिया कि ईश्वर किसी भी अवस्था में हमें अकेला नहीं छोड़ते, बल्कि वे हमेशा साथ रहते हैं और दुख आने पर तो वे हमारा कुछ ज्यादा ही ख्याल रखते हैं। उन्होंने कहा कि कबीर का एक दोहा है –
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।।
इस दोहे के माध्यम से भी कबीर ने यह बताने की कोशिश की है कि हमें दुख से ज्यादा सुख में ईश्वर को याद करने की जरुरत है, क्योंकि हमारे जीवन में दुख आने पर या कठिन परिस्थितियों के आ जाने पर ईश्वर हमें अपने गोद में उठा लेते हैं। ब्रह्मचारी सौम्यानन्द ने कहा कि तीसरा अमूल्य उपहार अपने जीवन में सद्गुरु की उपस्थिति हैं। उन्होंने कहा कि गुरु के बिना एक कदम भी कोई नहीं चल सकता। उन्होंने गुरु की महत्ता बताते हुए कहा कि कबीर ने गुरु के बारे में भी कहा है –
यह तन विष के बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
उन्होंने कहा कि यह शरीर विष से भरा है, जबकि गुरु अमृत के खान होते हैं। इसलिए अगर शीश देने पर भी गुरु मिलते हो तो इसे सस्ता ही समझिये। उन्होंने कहा कि आप और हम भाग्यशाली है कि हम योगदा के महान गुरुओं के संरक्षण में हैं। हमारे गुरु हमसभी से बिना किसी चाहत के अथाह प्रेम करते हैं, क्योंकि वो हममें छुपे ईश्वर को देख रहे होते हैं और चाहते हैं कि उनसे जुड़े लोग उस ईश्वर तक आसानी से पहुंच जाये। उन्होंने कहा कि कोई भी अवतारी पुरुष जब दुनिया में आता है तो उसे काफी कष्ट झेलना पड़ता हैं, वो कष्ट एक सामान्य व्यक्ति नहीं झेल सकता। लेकिन वो हम सभी के कल्याण के लिए कष्ट झेलता है। उन्होंने कबीर की एक और पंक्ति सभी के समक्ष रखी –
सात समद की मसि करो, लेखनि सब बनराई।
धरती सब कागद करो, हरि गुन लिखा न जाई।।
कबीर कहते हैं कि सातों समुद्र की अगर स्याही बना ली जाये, जितने धरती पर जंगल हैं, उन सभी की सहायता से कलम बना ली जाये और पूरी धरती को कागज का स्वरुप दे दिया जाये, फिर भी ईश्वर की महत्ता को लिखा नहीं जा सकता।
इसलिए उस ईश्वर को पाना है तो जो योगदा के महान गुरुओं ने जो हमें प्रविधियां सिखाई हैं। उनके अनुसार जीवन यापन करने में ही हमारी भलाई है। ऐसा करने से ही हमें अपने गुरुओं द्वारा संरक्षण प्राप्त होगा। उन्होंने कहा कि गुरु हमेशा अपने चाहनेवालों को अपने जैसा बनाना चाहते हैं, ताकि आप भी ईश्वर को प्राप्त हो। ऐसे भी हमारा अधिकार है ईश्वर को प्राप्त करना। लेकिन यह तभी संभव है, जब आप अपने ड्यूटी को भी समझे।
उन्होंने सच्चे भक्तों की चार ड्यूटियां बताई। पहला -गुरु के प्रति सद्निष्ठा – वहीं सच्चा भक्त हैं जो अपने गुरु के प्रति सच्ची निष्ठा रखता है। मतलब गुरु और उनके सहयोगियों व उनके पदचिह्नों पर चलनेवालों के प्रति सच्ची निष्ठा रखता है। दूसरा – आज्ञापालन – गुरु के बताये मार्गों, जैसे उनके व्याख्यानों व लिखित आदेशों को पालन करता हो। तीसरा – अपने आध्यात्मिक चक्षुओं में गुरुओं का विजुयलाइजेशन करता हो और चौथा बिना किसी दबाव या शर्तों के या किसी चाहत के अपने गुरु के प्रति भक्ति रखता हो।
ब्रह्मचारी सौम्यानन्द ने तो साफ कह दिया कि सच्चा भक्त वहीं हैं, जो ईश्वर या गुरु में अपने अस्तित्व को समाप्त तक कर देने की क्षमता रखता हो। उन्होंने अंत में कहा कि आप ध्यान, भक्ति और सद्कर्तव्यों के द्वारा बहुत ही आसानी से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। बस प्रयास जारी रखिये, इस प्रयास को कभी मंद मत पड़ने दीजिये, आप पायेंगे कि आप आध्यात्मिक पथ पर सर्वोच्चता को प्राप्त करते जा रहे हैं।