अपनी बात

वो जलते दीये, वो घरौंदा बनाने के लिए बचपन की इंजीनियरिंग, अब तो बस दिवाली की यादें ही शेष…

बात 1976-77 की है, उस वक्त हमारी उम्र नौ-दस साल की रही होगी। दिवाली की आहट आते ही हम भाई-बहन घरौंदा बनाने के अभियान में जुट जाते। स्कूल जाने के क्रम में कुशवाहा पंचायत भवन के बगल में एक किसान परिवार के यहा बना घरौंदा बराबर हमें आकर्षित करता, हम भी सोचते कि क्यों न हम भी ऐसा घरौंदा बनाये, जो सालों भर रहे, पर ऐसा कभी संभव नहीं हुआ, जिन घरौंदों को बनाने के लिए हम भाई-बहन पूरी एड़ी-चोटी एक कर देते, वह घरौंदा कब टूटकर बिखर जाता पता नहीं चलता।

स्कूल की छुट्टी समाप्त होते ही, घर पहुंचे, किताब-कॉपी का थैला जहां-तहां फेंका, टोकड़ी उठाई, और चल दिये, खेत-खलिहान में। चूंकि अपने घर से खेत – खलिहान ज्यादा दूर नहीं होता, इसलिए हमलोग उस खेत में पहुंचते, जहां कोई फसल न लगा हो, जितनी ताकत, उतनी मिट्टी ली और टोकरी में उठाकर चल दिये। घर पहुंचते ही मिट्टी घर में रखी और मां से पूछता कि मां देखो मिट्टी का काम पूरा हो गया या और चाहिए, मां जैसा बताती – मिट्टी उतना ला दिया जाता, फिर शुरु होता – घरौंदा के लिए ईट का जुगार, बांस के तिनकों का जुगार, छोटे-छोटे आइनों का इक्टठा करना।

मां को बताने का काम कि इस बार घरौंदा कितनी मंजिल का बनेगा, आदर्श घरौंदा कम से कम दो मंजिलो का होना चाहिए, दो मंजिलों से कम घरौंदे मंजूर ही नहीं होते। जब मां घरौंदा बनाने बैठती तो हम भाई-बहन मां के आस-पास इस प्रकार बैठ जाते कि जैसे कोई आर्किटेक्ट या इंजीनियर बैठा हो, बीच-बीच में हमलोग मां को बताते कि मां, ऐसा होता तो कैसा रहता, वैसा होता तो कैसा रहता, मां घरौंदा बनाती जाती और बीच-बीच में मुस्कुरा दिया करती, और लीजिये जब घरौंदा तैयार हो जाता तो उसे देखकर हम लोग फूले नहीं समाते।

उसके बाद घरौंदा को जल्द सुखाने की तैयारी, भगवान इन्द्र को कहा जाता कि वे बेमतलब की बूंदा-बांदी नहीं करेंगे, पवन देव को गुहार लगाई जाती, जरा तेज बहिये ताकि हमारा घरौंदा सुख जाये और फिर जैसे ही घरौंदा सुख जाता, उसकी रंगाई-पुताई शुरु और लीजिये हमलोगों के सपनों का घर – घरौंदा तैयार। इसके बाद शुरु होता, अपने दोस्तों के घर का दौरा। किस-किस के घर घरौंदे बने हैं, और वो कैसा है, हमारे घरौंदे में क्या विशेष है? और दूसरों में क्या विशेषता, कोशिश होती कि आनेवाले समय में उन कमियों को पूरा कर लिया जाये।

इसी बीच धनतेरस आता, बाबूजी हम भाई-बहनों को साइकिल पर बिठाते, और चल पड़ते दिवाली के लिए सामान खरीदने, हमलोगों की लिस्ट कुछ लंबी-चौड़ी होती, घर में जितने सामान होते, वे सारे सामान हमारे घरौंदों में होने चाहिए। लिस्ट में एक अछिया चुल्हा, दो अछिया चुल्हा, चार तसले, दो मटके, एक लोढ़ा-सिलौटी, एक जाता, दो बड़ी थाली, दो छोटी थाली, दो गिलास, एक घंटी, माथे पर दिया लिए एक महिला, चार-चार हाथों वाले गणेश-लक्ष्मी क्योंकि मां इन्हें बड़े परात पर रखकर पूजा करना नहीं भूलती, सब मिट्टी के बने ये सामान लेने है, थोड़ा कुम्हारों के नखरे भी देखने थे, एक पैसे कम नहीं होंगे, बस एक दाम है, महंगाई बढ़ गई है, क्या करियेगा, बनाने से लेकर आग में पकाने तथा रंग-रोगन में काफी मेहनत है, फिर भी लेना हैं तो लेना है, नहीं तो बच्चों की हड़ताल होनी सुनिश्चित।

सारे सामान बोरे में सावधानी से रखकर साइकिल पर लाद, बाबूजी लावा-फरही के दूकान पहुंचते और फिर साधु होटल के यहां से शुद्ध घी के लड्डू खरीद आगे की ओर चल पड़ते, तभी हम लोगों को याद आती, अरे इस बार पटाखे तो लिये ही नहीं, बाबूजी मुस्कुराते और पटाखे की दुकाने से चुटपुटिया, छुरछुरी और जमीन पर पटककर फोड़नेवाले लाल-पीले कागजों में लिपटे लहसुनियां पटाखे लेते और खुशी-खुशी घर चल देते।

दिवाली के दिन मुहल्लों की रौनक रहती, क्या गरीब- क्या अमीर, सभी के घर में अंधेरों में जलते दिये मन को प्रसन्न कर देते, अंधेरों को चीरती दिये के प्रकाश से जगमगाते छोटे-बड़े घर स्वर्ग का आभास करा देते, शाम को जल्दी-जल्दी पूजाकर, मां-बाबूजी हम लोगों को इस प्रकाश पर्व के आनन्द का ऐहसास कराते।

हमारे घर के बगल में रहनेवाले नन्दा साव के घर दिवाली की पूजा की बड़ी रौनक रहती, उनके यहां दीवाली की पूजा कराने बाबू जी विशेष तौर पर पहुंचते, उनके आढ़त की दीवाली पूजा मुहल्ले की शान रहती, पूरे मुहल्ले में लावा-फरही और मिठाइयों का आदान-प्रदान होता, सभी एक दूसरे का सम्मान करते और मुस्कुराकर अभिवादन स्वीकार करते, कोई हैप्पी दिवाली या दिवाली मुबारक या दिवाली की शुभकामनाएं नहीं बोलता, क्योंकि ये बोलने का काम तो दिल ही कर दिया करती।

अब तो 2018 में प्रवेश कर गया हूं, जहां पटाखे हैं, दिये हैं, अपने मन की करने के सब कुछ है, पर अगर नहीं है तो वे पुराने लोग, जिनसे हमने दिवाली का अर्थ जाना, दिवाली का मतलब जाना, मुबारक-शुभकामना-बधाई का सही अर्थों में स्वभाव जाना, और जलते दियों के माध्यम से एक दूसरे के अंधकार पक्ष को मिटाकर प्रकाश से भर देने की कला जानी, काश लोग दिवाली के सही अर्थों को आज समझते तो हम दिवाली सही अर्थों में मना रहे होते, भला दिवाली में बनावटीपन की क्या जरुरत, भला जब हैप्पी दिवाली हम बोले और दिल में खुशी का ऐहसास ही न हो, तो फिर काहे की हैप्पी और काहे की दिवाली।