विश्वनाथ प्रताप सिंह, पिछड़ों का मसीहा, जो न घर का रहा, न घाट का
कल पूर्व प्रधानमंत्री एवं पिछड़ों के मसीहा वी पी सिंह का जन्म दिन था। हमें लगा कि कल उनके चाहनेवाले, तथा उनके नाम पर कभी राजनीति करनेवाले, या उनके नेतृत्व को स्वीकार करनेवाले, उन्हें दिल से याद करेंगे, पर झारखण्ड ही नहीं, बल्कि देश के किसी भी भाग में, ऐसा कही भी देखने को नहीं मिला। बिहार की राजधानी पटना में सिर्फ एक कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें स्वयं नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री, बिहार ने भाग लिया तथा इस कार्यक्रम से उन्हें याद कर उनके जन्मदिन की इतिश्री कर ली।
ये भी जगजाहिर है कि जब वी पी सिंह प्रधानमंत्री थे, उस वक्त पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल के बढ़ते राजनीतिक वर्चस्व को रोकने के लिए, उन्होंने अचानक मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था, तो पूरे देश में आरक्षण विरोधी दंगा प्रारंभ हो गया था। बिहार में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उसी वक्त पटना के गांधी मैदान में आरक्षण के समर्थन में, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के समर्थन में मंडल रैली की थी, जिसमें भारी प्रतिरोध के बावजूद पिछड़ों का भारी हुजूम जुटा था, जिसमें स्वयं लालू प्रसाद यादव ने वी पी सिंह की तुलना गौतम बुद्ध से कर दी थी।
यह वह समय था, जब वी पी सिंह देखते-देखते राजपूत जाति के होते हुए भी, सवर्ण होते हुए भी, पिछड़ों के दिलों में बस चुके थे, जबकि आरक्षण से वंचित एवं आरक्षण का कड़ा विरोध करनेवाला गुट उन्हें अपना खलनायक मान चुका था। लोग कहते है कि उसी वक्त से जातिवाद का एक नया विकृत चेहरा सामने आया, जिसे आज भी कहीं न कहीं वीभत्स रुप में देखा जा रहा हैं। कमाल इस बात की भी है कि जिस नेता ने मंडल आयोग के माध्यम से पिछड़ों को साढ़े 27 प्रतिशत आरक्षण दिलवाया, आज वह पिछड़ा वर्ग भी उसे भूल चुका है और उसे अपना नेता नहीं मानता।
पिछड़ों के नेता कहे जानेवाले, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और अन्य नेताओं के कार्यक्रमों व रैलियों से तो वी पी सिंह कब के आउट हो चुके हैं। कमाल तो ये भी है कि आज जिन पिछड़ों के वोटों को पाने के लिए नाना प्रकार के तिकड़म भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, वामपंथी पार्टियां करती है, जो पिछड़ों के आरक्षण की घोर समर्थक हैं, वह भी वी पी सिंह को पूरी तरह से भूल चुके हैं, न तो ये वी पी सिंह का जन्मदिन मनाते है और न पुण्यतिथि। शायद वे जानते है कि वी पी सिंह को लेकर कोई कार्यक्रम आयोजित वे करेंगे तो उसका खामियाजा, उन्हें भुगतना पड़ेगा, क्योंकि आरक्षण से वंचित एक तबका आज भी वी पी सिंह को खलनायक समझता है और पिछड़े भले ही उन्हें भूल जाये, पर वो अभी तक इन्हें भूला नहीं हैं।
आश्चर्य इस बात की है, जिस अम्बेडकर और कांशीराम को दलित वर्ग अपना नेता मानकर, उन्हें सम्मान देता है, वो सम्मान यहां का पिछड़ा वर्ग वी पी सिंह को नहीं देता, ये पिछड़ा वर्ग भी अम्बेडकर को ही अपना नेता मानकर, आगे की ओर चल रहा है। बुद्धिजीवियों का मानना है कि वी पी सिंह को सम्मान नहीं मिलने का मूल कारण, पिछड़ों का विभिन्न जातियों में बंट जाना, यूपी में यादवों का मुलायम को अपना नेता मानना तथा बिहार में यादवों का लालू को नेता मानना तथा कोइरी कुर्मियों के लोगों का नीतीश को अपना नेता मानना हैं।
इसी प्रकार भारत के अन्य राज्यों में पिछड़ों के कई नेता कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं, वैश्य वर्ग तो मोदी को अपना नेता मानने लगा है, उसे लगता है कि मोदी बनिया जाति से हैं, इसलिए वे उनके नेता हो गये, ऐसे में वीपी सिंह के नाम पर कोई वोट बैंक बना ही नहीं तो भला आज के राजनीतिक दुकानदारी में लगे लोग वी पी सिंह को लेकर क्यों चले, या उन्हें इतना भाव क्यों दें?
बेचारे वी पी सिंह को लगा था कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर देने के बाद वे जीते जी महान नेताओं की श्रेणियों में आ जायेंगे, पर सच्चाई यह हैं कि वे जीवित थे तब भी और मरे तब भी, मरने के बाद भी उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जिसकी कामना उन्होंने की थी, या जिस वक्त वे प्रधानमंत्री थे, तब उन्हें पिछड़ों ने देने की कोशिश की थी, पर जैसे ही वे प्रधानमंत्री पद से नीचे उतरे, उनका रहा सहा सम्मान भी जाता रहा, वे राजनीतिक दुनिया से ऐसे विलोपित हो गये, जैसे लगा कि वे अछूत हो।
जब वी पी सिंह जीवित थे, उस वक्त भी किसी ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया, जिसका मलाल वी पी सिंह को बराबर लगा रहा, और आज तो वे इस दुनिया में हैं, ही नहीं, यानी जिनके लिए वे लड़ाइयां लड़े, जिनको आरक्षण दिलवाया, जिनके चलते उन्होंने अपनों को दुश्मन बना लिया, वे भी उनके प्रति वफादार नहीं रहे। अब इसे क्या कहा जाये? कर्म का दोष या पिछड़े नेताओं की नमक हरामी।
कुछ लोग तो मानते है कि पिछड़ों को आरक्षण देने में जो जल्दबाजी वी पी सिंह ने दिखाई और जो इसका श्रेय लेने की उनमें जो होड़ थी तथा अपनी ही पार्टी में देवी लाल जैसे नेता को नीचा दिखाने की उनकी कोशिश तथा पूरे देश में जो उन्होंने जातिवाद फैलाकर देश की आतंरिक शक्ति को कमजोर किया, उसका परिणाम हैं कि लोग वी पी सिंह को भूल गये, क्योंकि नेता वहीं होता हैं, जो सबको साथ लेकर चलें, नेता वहीं हैं जो सभी जातियों-समुदायों से प्यार करें, अगर आप किसी एक जाति या एक समुदाय को लेकर चलेंगे तो निश्चित मानिये कि आप न तो गांधी बनेंगे, न अम्बेडकर बनेंगे और न लाल बहादुर शास्त्री बनेंगे, केवल आप वी पी सिंह बनेंगे। ऐसे हालात में जो आज नये लोग राजनीति में कदम रख रहे हैं, वे खुद चिन्तन करें कि वे जीते जी ही मर जाना चाहते हैं या मरने के बाद भी जीवित रहना चाहते हैं, अगर आप मरने के बाद भी जीवित रहना या सम्मान पाना चाहते हैं तो आपको सबको गले लगाना होगा, सबके लिए संघर्ष करना होगा,सबको सम्मान देना होगा, नहीं तो परिणाम आपके सामने हैं।