संघ का वह महान स्वयंसेवक, जिन्होंने विवेकानन्द शिला स्मारक से कन्याकुमारी की सुरत बदल दी
मेरे घर में देश के दो महान सपूतों की खुब चर्चा होती है। एक महान आध्यात्मिक संत स्वामी विवेकानन्द तो दूसरा महान क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह। एक दिन मेरे बड़े बेटे ने कहा कि पापा जी, चलिए कन्याकुमारी चलते है। हमने भी देऱ नहीं की, और प्रभु से प्रार्थना की, कि कुछ ऐसा संयोग हो, कि हम सपरिवार कन्याकुमारी के लिए निकल पड़े, क्योंकि जब मेरे बड़े बेटे को छुट्टी मिलती हैं तो छोटे बेटे को नहीं, और जब छोटे बेटे को छुट्टी मिलती है तो बड़े बेटे को नहीं। इस बार ईश्वरीय कृपा हुई और संयोग से दोनों बेटों की छुट्टी एक साथ मंजूर हो गई और हम निकल पड़े, कन्याकुमारी की ओर।
कन्याकुमारी जाने के लिए हमें हावड़ा से ट्रेन पकड़ना था, तो ये संयोग रहा कि जहां स्वामी विवेकानन्द ने अधिकांश पल बिताये, उस स्थान यानि दक्षिणेश्वर जाने का भी मौका मिला, जबकि कन्याकुमारी जाने के क्रम में हमें दक्षिणेश्वर जाना ही है, इसका एक बार भी हमलोगों ने चर्चा नहीं किया था, पर ये ईश्वरीय कृपा थी कि मन में भाव जगा कि जब स्वामी विवेकानन्द की भूमि कन्याकुमारी जा ही रहे हैं, तो बिना दक्षिणेश्वर गये, कन्याकुमारी की यात्रा का क्या प्रभाव? भगवत्कृपा दक्षिणेश्वरी का इतना सुंदर दर्शन हमें अंदर से हिला दिया था। हमारे मुख से दर्शन के समय ऐसे वाक्य निकलें, जिसकी कल्पना में नहीं कर सकता और फिर पहुंच गये हावड़ा कन्याकुमारी सुपरफास्ट एक्सप्रेस से कन्याकुमारी।
चूंकि कन्याकुमारी की चर्चा हम इसके पूर्व में कर चुके हैं, आज हम एक ऐसे महान शख्स से परिचय कराने जा रहे हैं, जिन्होंने कन्याकुमारी की दशा और दिशा ही बदल दी। आज जो आप कन्याकुमारी देख रहे है, वह कन्याकुमारी ऐसा नहीं था, इसकी स्थिति दयनीय थी, पर कन्याकुमारी तट पर बना विवेकानन्द शिला स्मारक, कन्याकुमारी के सौंदर्य को और निखार दिया, यहीं नहीं भारतभूमि के चरण की प्रखरता को और चमत्कृत कर दिया।
आप जैसे ही कन्याकुमारी के समुद्री तट पर पहुंचेंगे, आपको एक भगवा ध्वज हवा की लहरों से अठखेलियां करता भारत के महान संस्कृति की याद दिलाता है। यह याद दिलाता है कि भारत के महान आध्यात्मिक संत स्वामी विवेकानन्द की वह सोच – कि भारत कभी मर नहीं सकता। यहां आप जैसे ही पहुंचेंगे तो इसके पास से ही भारत के महान संत तिरुवल्लुवर की विशाल प्रतिमा नजर आयेगी और इसके ठीक पास विवेकानन्द शिला स्मारक, जो आपको अपने पास आने के लिए विवश कर देती है। आप बिना यहां आये कन्याकुमारी में छुपी भारत की विशाल परंपराओं और संस्कृतियों को न तो जान सकते हैं और न समझ सकते हैं, क्योंकि इसी शिला पर छुपा है, अध्यात्म की अलौकिक शक्तियों का वह इतिहास, जो नरेन्द्र को स्वामी विवेकानन्द बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस शिला पर ही कन्याकुमारी के चरण चिह्न हैं तथा स्वामी विवेकानन्द की विशाल आकृति की प्रतिमा, और यहीं पर है ध्यान केन्द्र जो आपको अध्यात्म का रसपान कराती है। हम आपको बता दें कि स्वामी विवेकानन्द ने समुद्र में छलांग लगा कर, समुद्री धाराओं की प्रतिकुल प्रचण्ड लहरों को चुनौती देते हुए, इसी स्थान पर आकर आश्रय लिया। यहां उन्होंने तीन दिन बिताये। समय था – 25, 26 और 27 दिसम्बर 1892 का। सत्य का अन्वेन्षण करने के लिए स्वामी विवेकानन्द हिमालय से लेकर भारत के अंतिम छोर तक पहुंचे और यहीं ईश्वर द्वारा निर्दिष्ट ध्येय का उन्हे आत्म-साक्षात्कार हुआ।
एकनाथ रानाडे – संघ का एक महान स्वयंसेवक
एकनाथ रानाडे के अनुसार यह शिला स्वामी विवेकानन्द के साथ वैसा ही जुड़ा है, जैसे बोधगया का बोधिवृक्ष गौतम बुद्ध से। यह आत्म-साक्षात्कार का ही प्रभाव था कि एक सामान्य संन्यासी, असामान्य संन्यासी के रुप में परिवर्तित हो चुका था। जब स्वामी विवेकानन्द की जन्मशताब्दी मनाने का समय आया तभी यहां एक स्मारक बनाने का विचार एकनाथ रानाडे के मन में आया। अखिल भारतीय स्तर पर “स्वामी विवेकानन्द सेन्टेनरी सेलीब्रेशन एंड रॉक मेमोरियल कमेटी” बनाई गई। इस समिति ने विवेकानन्द शिला पर विवेकानन्द स्मारक बनाने का 1963 में तमिलनाडु सरकार को आवेदन सौंपा।
बताया जाता है कि जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द को इस शिला पर आने के लिए प्रचण्ड लहरों ने रोकने की कोशिश की थी। इस विवेकानन्द शिला स्मारक बनाने में भी एक बार फिर कठिनाइयों का बड़ा बवंडर उठा, पर एकनाथ रानाडे के आगे, उन कठिनाइयों की एक न चली। 1964 में तमिलनाडु सरकार ने स्मारक बनाने की अनुमति दे दी। अब दिक्कतें थी, इस महान कार्य हेतु राशि जुटाने की। इधर कांची कामकोटि पीठ के परमाचार्य जी के मार्गदर्शन में देश के जाने माने शिल्पकार एस के आचारि इसकी रुपरेखा बनानी शुरु की। इस पुनीत कार्य में पूरे देश और विदेश में रहनेवाले भारतीयों ने खुलकर सहयोग देने का संकल्प किया। इसमें केन्द्र और राज्य की सरकारों के साथ – साथ सामान्य जनता का सर्वाधिक योगदान रहा और इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द के चाहनेवालों का स्वपन साकार हुआ।
2 सितम्बर 1970 विवेकानन्द शिला स्मारक राष्ट्र को समर्पित
जब पूरा विश्व स्वामी विवेकानन्द के विश्व धर्म सम्मेलन में हुए ऐतिहासिक व्याख्यान का 77 वीं वर्षगांठ मना रहा था, ठीक उसी दिन 2 सितम्बर 1970 को इस स्मारक का लोकार्पण और उद्घाटन कर दिया गया। इस लोकार्पण समारोह में प्रमुख रुप से रामकृष्ण मठ और मिशन के तत्कालीन अध्यक्ष श्रीमंत स्वामी वीरेश्वरानन्द जी, त्तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वी वी गिरि तथा तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने विशेष रुप से भाग लिया था।
यह एकनाथ रानाडे का ही कमाल था कि 323 सांसदों ने सरकार को शिला स्मारक के निर्माण के लिए अनुमति देने के लिए आह्वान किया। यह एकनाथ रानाडे जी का ही कमाल था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, लाल बहादुर शास्त्री, एम सी छागला, रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी माधवानन्द जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी, कांची कामकोटी के परमाचार्य स्वामी चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती, चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानन्द जी और अन्य महान व्यक्तियों ने इस कार्य में स्वयं को सम्मिलित किया।
इस स्मारक के निर्माण में एक रुपये के कुपन ने भी कमाल दिखाया, भारत की सामान्य जनता ने खुलकर इसके माध्यम से सहयोग किया और जन-जन का ये शिला स्मारक बनकर तैयार हो गया। विवेकानन्द शिला स्मारक को वास्तविक रुप देने की सोच रखनेवाले उस महान शख्स एकनाथ रानाडे को जानिये। जब पूरा राष्ट्र स्वामी विवेकानन्द का जन्म शताब्दी मनाने की तैयारी कर रहा था, तब एकनाथ जी इस महान आध्यात्मिक संत स्वामी विवेकानन्द के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए “राउजिंग कॉल द हिन्दू नेशन” पुस्तक का संकलन कर रहे थे।
ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रुप में रहते हुए इन्होंने विभिन्न दायित्वों का निर्वहण किया। सरसंघचालक श्री गुरुजी ने ही उन्हों विवेकानन्द शिला स्मारक समिति का कार्यभार संभालने को कहा था, जिसका दायित्व उन्होंने बहुत शानदार तरीके से निभाया। एकनाथ जी ने ही विवेकानन्द शिला स्मारक की कार्य योजना इस तरह से बनाई कि इसके साथ ही साथ अध्यात्म प्रेरित सेवा संगठन विवेकानन्द केन्द्र की आधारशिला भी रखी गई।
वे 1978 तक विवेकान्द केन्द्र के महासचिव और उसके उपरांत अध्यक्ष रहे। एकनाथ जी विदेश मंत्रालय, भारत सरकार, के अंतर्गत “इंडियन कौंसिंल फॉर कल्चरल रिलेशन” के सदस्य भी रहे। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द जी की एकात्मता के संदेश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार करने का निश्चय किया, इसलिए उन्होंने चेन्नई में 22 अगस्त 1982 को अपने निधन के कुछ दिन पूर्व ही विवेकानन्द केन्द्र अंतरराष्ट्रीय की स्थापना की।
विवेकानन्द केन्द्र यानी कन्याकुमारी की आध्यात्मिक आस्थाओं का केन्द्र बिन्दु
विवेकानन्द केन्द्र सचमुच समर्पित कार्यकर्ताओं पर आधारित संगठन हैं। जहां आप जायेंगे तो आप स्वयं को धन्य हो गया सा महसुस करेंगे। एक सौ एकड़ से अधिक में फैले विवेकानन्द केन्द्र का मुख्यालय विवेकानन्दपुरम है। यहां आप आकर आध्यात्मिक सुख का लाभ उठा सकते हैं। यहां बना भारतमाता मंदिर, रामायण दर्शन मंदिर, विवेकानन्द मंडपम् आपको बरबस अपनी ओर खींचते हैं, जिसे देखकर व महसूस कर आपकी अंतरात्मा जागृत हो जाती हैं। यह स्थान सूर्योंदय दृश्य देखने के लिए सर्वोतम है।
यहां यात्रियों के ठहरने के लिए विशेष व्यवस्था है। कन्याकुमारी स्टेशन से प्रत्येक घंटे आपको बस सुविधा उपलब्ध है। चौबीस घंटे जलापूर्ति, डाकघऱ, भारतीय स्टेट बैंक, चिकित्सालय, शाकाहारी भोजनालय, प्रातःकालीन प्रार्थना एवं भजन संध्या के आयोजन की भी व्यवस्था है। यह केन्द्र आध्यात्मिक, योग, प्रेरणा, व्यक्तित्व विकास, ध्यान आदि के लिए विशेष शिविर भी लगाती है। चरित्र निर्माण शिक्षा इसका प्रमुख उद्देश्य है। देश के उत्तरपूर्वी इलाकों में आज भी इनका यह कार्यक्रम अनवरत् चल रहा है। तमिलनाडु के कई पिछड़े गांवों में इनके विकास कार्यक्रम चल रहे हैं।
हम शुक्रगुजार है, अपने मुहल्ले के रमेश प्रसाद का। जिन्होंने हमें विवेकानन्द केन्द्र के बारे में विशेष तौर पर बताया था। उनके बताये अनुसार ही हमने विवेकानन्द केन्द्र से ऑनलाइन संपर्क किया, जिसका लाभ हमें मिला। सचमुच अगर हम कन्याकुमारी के विवेकानन्द केन्द्र में नहीं ठहरे होते, तो हम कन्याकुमारी की इस विशेषता व रोचक कहानियों से वंचित हो जाते और वंचित रह जाते, उस आध्यात्मिक स्पदंन से जो हमने यहां रहकर महसूस किया। हम विवेकानन्द केन्द्र से जुड़े सभी लोगों का अभिनन्दन करते है, जिनकी सेवाओं से भी सभी आनन्दित है, जो एकमात्र राष्ट्रसेवा को ही ध्यान में रखे हैं, तथा विभिन्न सेवा प्रकल्पों के माध्यम से मानवीय मूल्यों की रक्षा कर रहे हैं तथा भारत की महान परंपराओं को अक्षुण्ण बनाय रखे हुए हैं। हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस महान प्रचारक एकनाथ रानाडे जी के इस अदम्य साहस व महान कार्यों की सराहना करते है, जिनकी कीर्ति आज भी विवेकानन्द शिला स्मारक और विवेकानन्द केन्द्र के रुप में जीवित हैं, कहा भी जाता है – कीर्तियस्य स जीवति।