क्या स्वच्छता का जिम्मा सिर्फ सफाईकर्मियों का हैं और आपका काम सिर्फ गंदगी फैलाना
अगर पशु-पक्षी गंदगी फैलाते हैं तो समझ आता है कि उन्हें ज्ञान नहीं, पर जब मनुष्य गंदगी फैलाये और देश का प्रधानमंत्री लोगों से अपील करें कि आप स्वच्छता पर ध्यान दीजिये और उसके बाद भी किसी के कानों पर जूं न रेंगे। जहां पाये, वहां गंदगी फैलाये, तो इसे क्या कहेंगे? स्वच्छता के प्रति दिलचस्पी का न होना या जान-बूझकर, ढिठई के साथ वहीं काम करना, जिसकी इजाजत उस व्यक्ति की आत्मा भी नहीं देती, जो निरन्तर गंदगी फैलाते रहते हैं।
मैं देश के कई गांवों-मुहल्लों, छोटे-छोटे शहरों, महानगरों में गया हूं, लेकिन इन सभी जगह एक ही समानता देखता हूं कि सर्वाधिक गंदगी फैलाने में उनका हाथ हैं, जो सुखी संपन्न है। जहां पाये, वहां गाड़ी रोक देना, मल-मूल का परित्याग कर देना, जहां पाये, वहां खाने-पीने के शेषांश को कचरे में न फेककर यत्र-तत्र फेंक देना, उनकी आदतों में शुमार है, पर यहीं जब आप गांवों में जाइये, तो आपको ये गंदगियां देखने को नहीं मिलेगी।
झारखण्ड के कई आदिवासी मुहल्ले-गांव है कि जहां आप गंदगियां ढूंढते रह जायेंगे पर आपको गंदगियां मिलेंगी ही नहीं, आदिवासियों के प्राकृतिक रंगों से सजे उनके छोटे-छोटे घर देखकर, आप आश्चर्य करेंगे कि यह संभव कैसे हैं? हमें खुद आश्चर्य होता है कि जिस छठ में पूरे बिहार के गली-मुहल्लों में स्वर्ग उतर आता है, उसी बिहार के गली मोहल्लों में आम दिनों में लोग नरक में रहने को कैसे और क्यों विवश हो जाते हैं?
एक बार की बात है कि मैं पटना से रांची आ रहा था, पटना से हटिया जानेवाली सुपर एक्सप्रेस के एक डिब्बे में एक पढ़े-लिखे व्यक्ति को देखा कि वह शौचालय के दरवाजे पर ही मूत्र त्याग कर रहा था, और जैसे ही ट्रेन बोकारो से रांची के लिए बढ़ी, वह व्यक्ति डिब्बे के गेट पर मूत्र त्यागकर, रात का फायदा उठाया, वहीं व्यक्ति जो ऐसी हरकत कर रहा था, खाने-पीने की वस्तुओं को खाता और उसके कचरे डिब्बे में ही फेंक देता।
कमाल की बात है कि वह अपनी हरकतों से सभी को परेशान कर रहा था, पर कोई उसे रोकने-टोकने की कोशिश नहीं कर रहा, जो नहीं झेल पा रहा था, वह सीधे उसके सीट से हटकर दूसरी जगह चला जाता, अब बात उठती है कि ऐसे लोगों का इलाज क्या है? रेलवे ने तो गंदगी फैलानेवालों पर पांच सौ रुपये का फाइन भी रखा है, पर सच्चाई यह भी है कि रांची रेल मंडल हो या कोई रेल मंडल, गंदगी फैलानेवालों पर कोई कार्रवाई होती ही नहीं, नहीं तो ऐसा करनेवाले, दस बार सोचते।
कमाल की बात है कि रांची जंक्शन के सभी प्लेटफार्मों पर सीसीटीवी लगे हैं, और इन सीसीटीवी पर सभी की नजरें गड़ी होती है, पर जिसमें साफ पता लग रहा होता है कि गंदगी कौन फैला रहा है, पर पुलिस या रेलकर्मी किसी को पकड़ते ही नहीं, उनसे हर्जाने वसूलती ही नहीं, जिस कारण गंदगी रुकने का नाम नहीं ले रही, जबकि सफाईकर्मियों का दल, एक ओर से दूसरी छोर तक सफाई में लगा रहता है, पर गंदगी है, जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती।
मैंने कई बार देखा है कि इन प्लेटफार्मों के पास की पटरियों पर हाथों में प्लास्टिक के दस्ताने पहने सफाईकर्मियों का दल कचरों को चुनता रहता है, आश्चर्य होता है कि जब वे कचरे चुन रहे होते हैं, उसी वक्त कोई न कोई कचरा फैला रहा होता है, उसे यह भी नहीं पता कि ऐसा कर, उन सफाईकर्मियों पर कितना जूर्म कर रहा है।
आश्चर्य इस बात की भी है कि रांची नगर निगम ने रांची के करीब सभी प्रमुख स्थलों पर छोटे-छोटे ऐसे-ऐसे स्थल बना दिये है जहां लोग मल-मूत्र का परित्याग कर सकते हैं, पर सच्चाई यह भी है कि यहां के ज्यादातर लोग, उसका इस्तेमाल न कर, उन जगहों का इस्तेमाल करते है, जहां गंदगी होती ही नहीं, आखिर यह सोच बदलेगा कैसे? भारत स्वच्छ बनेगा कैसे?
और ऐसे ही लोग, सरकार को कोसने में, ज्यादा समय लगायेंगे, गंदगी पर बड़े-बड़े व्याख्यान देंगे, सफाईकर्मियों पर गुस्सा उतारेंगे कि ये तो साफ-सफाई करते ही नहीं, लेकिन जब इन्हें पेशाब लगे या जब ये कुछ खा रहे हो या जब ये अपने मुख में पड़ी गंदगी को फेकने की स्थिति में हो, तो देखिये इनकी सारी अच्छाइयां कचरे के ढेर में दिखती नजर आयेगी।
सवाल उठता है कि जिस गांधी ने स्वच्छता को देवत्व का प्रवेश द्वार बताया था, उस गांधी की 150वीं जयंती वर्ष में हम हैं, और फिर भी हम स्वच्छता के प्रति ध्यान न देकर, केवल गंदगी फैलाने में ही शान समझ रहे हैं और सफाइकर्मियों को सम्मान नहीं दे रहै हैं तो इसका खामियाजा किसे भुगतना पड़ेगा? ये समझ क्यों नहीं आ रही। क्या बिमारियों के जीवाणु-विषाणु घर देखकर प्रवेश करते हैं? वे तो जब अपनी उपस्थिति दर्ज करायेंगे तो कई लोगों को लपेटे में ले लेंगे, ये समझ कब आयेगी हमारे देश के लोगों को?