ईश्वर जहां रखें, जिस अवस्था में रखें, उसी में आनन्द को ढूंढने का प्रयास करिये, आनन्द को सांसारिक वस्तुओं में ढूंढने की कोशिश करेंगे तो कभी लक्ष्य को प्राप्त नहीं करेंगेः गौतमानन्द
ईश्वर आपको जहां रखें, जिस अवस्था में रखें, उसी में आनन्द को ढूंढने का प्रयास कीजिये। अगर आप आनन्द को बाहर या सांसारिक वस्तुओं में ढूंढने की कोशिश करेंगे, तो आपको असफलता मिलेगी। लेकिन जैसे ही उसे आप अंतर्मन में ढूंढने का प्रयास करेंगे तो सफलता मिलनी सुनिश्चित है। उपर्युक्त बातें आज योगदा सत्संग मठ में आयोजित रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए ब्रह्मचारी गौतमानन्द ने कही।
उन्होंने एक बहुत ही सुंदर कहानी के माध्यम से व्यक्ति-विशेष के अंदर छुपी सांसारिक कामनाओं को उद्धृत करते हुए लोगों को समझाने की कोशिश की, कैसे एक व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं में सुख पाने की इच्छा से ईश्वर से तरह-तरह की वस्तुओं की मांग कर डालता है। ईश्वर उसे उसी के अनुसार उन सारी वस्तुओं की आपूर्ति भी कर देते हैं।
लेकिन फिर भी उसे वो आनन्द प्राप्त नहीं होता, जिसकी उसे इच्छा रहती है और जब उसका अंतर्मन जागता है, तो वहीं व्यक्ति ईश्वर को ही ईश्वर से मांग लेता है। कह उठता है कि हे ईश्वर आप मुझे अपने शरण में रखें और फिर वो उस आनन्द को प्राप्त कर लेता है कि फिर उसे किसी दूसरे वस्तु की इच्छा ही नहीं होती।
उन्होंने योगदा भक्तों को कहा कि इच्छाएं अनन्त हैं। उन इच्छाओं की पूर्ति हो जाने के बावजूद आनन्द आप प्राप्त कर ही लेंगे, इसकी संभावना असंभव है। इसे हमेशा याद रखें। उन्होंने कहा कि इस संसार में सुख और दुख दोनों हैं। इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करिये, क्योंकि ये दोनों आपके ही द्वारा प्राप्त कर्मफल हैं। इसकी खेती स्वयं आपने ही की है।
उन्होंने कहा कि हम ईश्वर से अलग नहीं, हमें ईश्वर ने अपने ही आकृति में बनाया है। इसलिये आत्मा उस आकृति में स्वयं को फिट करने के लिए हमेशा उत्सुक रहती है। उन्होंने कहा कि इस संसार का निर्माण सिर्फ सीखने और मनोरंजन के लिए हुआ है। इस संसार में स्थायी आनन्द को अगर आप ढूंढने का प्रयास करेंगे तो वो कभी नहीं मिलेगा। यह कड़वा सच है।
उन्होंने गौतम बुद्ध से जुड़ी एक दृष्टांत के माध्यम से बड़े ही सुंदर ढंग से बताया कि जिस सत्य को हम बाहर ढूंढने का प्रयास करते हैं, दरअसल वो सत्य बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर है। जो योगी होते हैं, वे सहजता से प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन जो योगी नहीं हैं, जो सांसारिक हैं, उन्हें उस सत्य को प्राप्त करने में कठिनाइयां होती है। उन्होंने कहा कि ध्यान ही एक ऐसा माध्यम है जो हमें अंदर में रह रहे सत्य का दर्शन कराता है। जिससे हमें अद्भुत शांति व परम आनन्द की प्राप्ति होती है।
उन्होंने यह भी कहा कि ध्यान का मतलब यह भी नहीं कि ध्यान करने के क्रम में हम बाहरी जरुरी कार्यों को भूल जाये। सांसारिक कार्यों को करते हुए भी हम ध्यान के माध्यम से ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। उन्होंने कहा कि अगर हम सांसारिक कार्यों को भी ईश्वरीय कार्य समझ कर करेंगे तो हमें वहीं फीलिंग प्राप्त होगी, जो ध्यान के द्वारा प्राप्त होता है। हमेशा याद रखें कि जो भी हम कर रहे हैं। वो ईश्वर के लिये कर रहे हैं। ईश्वरीय प्रेरणा के द्वारा यह कार्य संपन्न हो रहा है।
उन्होंने कहा कि अपने मनोभाव को बदलकर हम हर कार्य के माध्यम से ईश्वर से जुड़ सकते हैं। दरअसल योगी भी यही काम करते हैं। योगी भी सांसारिक कार्यों में लिप्त होने के बावजूद भी अपनी कार्यशैली में बदलाव नहीं लाते। बल्कि बाह्य और आंतरिक शक्तियों के बीच में संतुलन बनाते हुए स्वयं को स्थिर रखते हैं।
उन्होंने कहा कि हम सभी को हमेशा यह बात याद रखनी चाहिए कि हम शरीर नहीं, बल्कि आत्मा है। हमेशा जीवन का एक लक्ष्य होता है। उस लक्ष्य को हमेशा ध्यान में रखिये। उस लक्ष्य को प्राप्त करने लिए धर्म हमें मार्ग प्रशस्त करता है। मतलब जैसे किसी खेल के कुछ नियम-उपनियम होते हैं और उन नियमों-उपनियमों को पालन करना प्रत्येक खिलाड़ी के लिए जरुरी होता है, जो वो खेल खेल रहा होता है। उसी प्रकार धर्म के पालन में भी कुछ नियम होते हैं, जिनका पालन करना हमारे लिये जरुरी है। मतलब धर्म से चलेंगे तो हम आगे बढ़ेंगे, लक्ष्य को पायेंगे, नहीं तो धर्म के नियमों का पालन नहीं करेंगे तो हम दंडित भी होंगे।
उन्होंने कहा कि धर्म के विरुद्ध जो भी कोई कार्य करता है, वो संकट में पड़ता है। उन्होंने कहा कि धर्म को जानने के लिए व धर्मानुसार आचरण करने के लिए गुरु जी की बताएं शिक्षाएं पर्याप्त है। उन्होंने कहा कि केवल धार्मिक शिक्षाएं जानना ही जरुरी नहीं है, बल्कि उसका नियमित अभ्यास भी जरुरी है। तभी हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
उन्होंने कहा कि अपने आचरण-व्यवहार व अपनी सोच को ठीक करने के लिए ध्यान बहुत ही जरुरी है। उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति को उसका अशान्त मन, अनियंत्रित प्राणशक्ति और माया हमेशा से प्रभावित करती हैं। लेकिन ठीक योगी अपने मन को स्थिर रखते हुए, अपने प्राणशक्ति को आयाम देते हुए, माया से अप्रभावित होकर निरन्तन परम आनन्द की खोज में लगे रहते हैं।
उन्होंने कहा कि हमेशा सांसारिक मोह-प्रलोभनों से स्वयं को दूर रखे। यह हमें ईश्वर से दूर करता है। मोह-प्रलोभन ऐसी चीज हैं, जो हमें यह बताता है कि ऐसा करने से हमें आनन्द प्राप्त होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं हैं। दरअसल प्रलोभन महाभारत का दुर्योधन है, जो हमें संकट में डालता है, जिससे हम कभी उबर नहीं सकते।
उन्होंने कहा कि हमेशा कृष्ण को अपनाएं, क्योंकि पांडव के जीत का मूल कारण उनके पास कृष्ण का होना था। कृष्ण दरअसल धर्म के प्रतीक हैं। जहां धर्म होगा, वहां जीत सुनिश्चित है। कहा भी गया है – यतो कृष्णः ततो जयः। हमेशा ईश्वर ने जो भी आपको दिया हैं। उसी में उनके प्रति कृतज्ञ बने रहिये। सत्याचरण व सही सोच से स्वयं को प्रकाशित करिये। हमेशा मुस्कुराते रहिये। संसार की समस्याओं को कभी सीरियसली नहीं लें, ये सिर्फ नाटक है।
उन्होंने कहा कि स्थायी आनन्द दुर्लभ है, इसे प्राप्त करने के लिए दिमाग लगाये, जो इसे बाहर खोजते हैं, उन्हें यह स्थायी आनन्द कभी प्राप्त नहीं होता। लेकिन जो इसे ध्यान के माध्यम से अंदर खोजते हैं। उन्हें वो सहजता से प्राप्त हो जाता है। जैसे योगियों का जीवन तीन पहलूओं पर केन्द्रित रहता है – पहला वैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा योगाभ्यास व ध्यान, दूसरा – सांसारिक कार्यों का बिना आसक्तियों के पालन व तीसरा – धर्मानुसार आचरण, ठीक उसी प्रकार अपने जीवन को ले चलें।