धर्म

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने योग के गूढ़ रहस्यों को बताते हुए कहा कि स्वयं को जानना ही योग है, दरअसल प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर का अंश है, इसे उसे पता ही नहीं, योग यही समझाना चाहता है

धन्य है रांची। धन्य है योगदा सत्संग मठ। धन्य है परमहंस योगानन्द जी। जिन्होंने झारखण्ड को अपने वरदानों से आच्छादित कर दिया है। जहां से निकल रहा आध्यात्मिक प्रकाश इस प्रकार से फैल रहा है, जिसके प्रकाश से प्रतिदिन ऐसे लोग अपने जीवन को धन्य कर रहे हैं, जिन्हें आध्यात्मिकता की भूख है, जो जानना चाहते है कि सही में वे हैं क्या? वे किसलिये धरती पर आये?

कुछ दिनों के बाद जल्द ही दसवां अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पूरे विश्व में मनाया जायेगा। लेकिन योगदा सत्संग मठ द्वारा मनाया जानेवाला योगदा सत्संग दिवस तो अलौकिक होता है, इस बात को वे लोग जानते हैं, जिन्होंने योगदा सत्संग मठ को जाना है। समझा है तथा उसके बताये मार्गों पर चलने का अभ्यास कर रहे हैं। आज योगदा सत्संग मठ में दसवां अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मन रहा था और इसे मनाने और मनवाने की जिम्मेदारी योगदा सन्यांसियों ने ले रखी थी।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि हमेशा की तरह अपने वाणियों से योगदा सत्संग मठ में बैठे समाज के विभिन्न वर्गों तथा दूर देश के विभिन्न कोनों में विभिन्न तकनीकी उपकरणों से जुड़े लोगों को संबोधित कर रहे थे। आज का उनका संबोधन आलेखीय कम, प्रायोगिक ज्यादा था। वे बोले कम और लोगों को दिखाया, सिखाया और महसूस ज्यादा कराया कि कैसे वे योग के माध्यम से अपने जीवन को उन्नत कर सकते हैं।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने साफ कहा कि योग क्या है? कभी जानने की आपने कोशिश की। योग केवल शारीरिक स्वस्थता या मानसिक स्वस्थता को प्रदान करने का नाम नहीं, बल्कि हम जो अपने सच्चे स्वरुप से स्वयं का परिचय प्राप्त कर लेते हैं, दरअसल योग यही है। दरअसल हम कोई शरीर नहीं, बल्कि हम शुद्ध चेतना, आत्मा, ईश्वर के अनुरुप सृष्टि है, जब हम इसे जान लेते हैं तो यही योग के मूल स्वरुप को हम जान लेते हैं।

उन्होंने कहा कि हम अपने सच्चे स्वरुप को जाने एक आत्मा का यही मूल उद्देश्य होना चाहिए और इसमें सबसे बड़ी बाधा है अपना मन और मन से जुड़ा यह शरीर। ये दोनों हमें अपने सच्चे स्वरुप तक ले जाने में, उसे पहचानने में बड़ी बाधा के रुप में सामने आ जाया करते हैं और योग-साधना इन्हीं शरीर और मन के अंदर के जो पर्दे हैं, उसे मिटाने का काम करती है और हमें अपने सच्चे स्वरुप में लाकर खड़े कर देती है।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि हमारे शरीर के अंदर रहनेवाली प्राणशक्ति ऐसी ऊर्जा है, जिससे हमारा शरीर जीवित और काम कर रहा होता है। हमारा मन प्राण से जुड़ा होता है। जहां प्राण है, वहां मन है। जहां मन है, वहां हमारी चेतना, जिसे हम स्वरुप मान लेते हैं। प्राण शक्ति हमारे शरीर से मिलकर हमें ऊर्जान्वित करता है और ये जहां बैठा है, वहीं मन भी बैठा है और इसे हटाने का तरीका है – योग विज्ञान।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि जिस शरीर को आप स्वयं का मान लेते हैं, जो विकृतियों या नाना प्रकार के बिमारियों का शिकार होता है। दरअसल आप वो हैं ही नहीं। आप तो वो आत्मा है जो नित्यनवीन आनन्द है। सही योग प्रविधियों के प्रयास से प्राण शक्ति हमारे जो शरीर में फैली है। उसको हम मेरुदण्ड तक लाकर, उसके द्वारा हम अपने चक्रों को जागृत कर सकते हैं। बस इसकी तकनीक हमें जाननी है। जिस तकनीक को हमारे योगदा के महान गुरुओं ने बताया।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने बताया कि चेतना का विकास तभी होगा, जब हम अपनी चक्रों को जागृत करने में लगायेंगे। लेकिन होता क्या है, जहां आपकी ऊर्जा है, वहां आपका मन है और जहां आपकी मन है, वहीं आपकी चेतना है। तो ऐसे में आपकी चेतना को सही जगह पर लाने का काम कौन करेगा, ये तो आपको ही करना पड़ेगा। महान गुरुओं के बताये मार्गों व आदर्शों के सहारे।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने बड़े ही प्रायोगिक ढंग से नाना प्रकार के योग साधनाओं से ध्यान केन्द्र में बैठे योगदा भक्तों को परिचय कराया। साथ ही परिचय का लाभ उन्होंने भी उठाया, जो दूर देशों में बैठकर उनके कार्यक्रमों का लाभ उठा रहे थे। स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने नाना प्रकार की योग तकनीकों के सहारे सभी को आनन्दित कर दिया। साथ ही प्रतिज्ञापन और अपने खासमखास लोगों को कैसे अपनी ऊर्जा उन तक पहुंचानी है और उसका लाभ कैसे उठवाना है, उसे भी बताया।

स्वामी ईश्वरानन्द ने कहा कि आप जिन्हें चाहते हैं। जिनके जैसे हैं। वो ईश्वर आपसे दूर नहीं, बल्कि आपके पास आपके नजदीक बैठे हैं। कही आपका वो हाल न हो जाये, जो एक भजन के माध्यम से हमारे एक संत ने कभी कहा था – पानी बीच मीन पियासी, मोहे सुन-सुन आवै हांसी। मतलब पानी के बीच में मछली प्यासी है, यह सुनकर उन्हें आश्चर्य हो रहा है। ठीक उसी प्रकार आप ईश्वर के बीच में हैं और आपको ईश्वर का भान नहीं हो रहा। तो इसके लिए जिम्मेवार कोई दूसरा को नहीं बनाइयेगा, उसके जिम्मेवार आप ही हैं।

इसके पूर्व योगदा संन्यासियों ने बहुत ही सुंदर भजन सुनाये। जिस भजन से सभी आह्लादित थे। जैसे-जैसे भजन शुरु हुआ। वैसे-वैसे इसकी मधुर ध्वनि पूरे माहौल को भक्तिमय बनाती चली जा रही थी। भजन के मुखड़े कुछ इस प्रकार थे … मैं हूं बुलबुला, सागर बना …, सागर बना, मुझे सागर बना …, ऐसा कर दे भगवन्, तू और मैं कभी न बिछड़े, सागर की बूंदे सागर में मिले …

सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये, जाहिं बिधि राखे राम, ताहिं बिधि रहिये, बिधि के बिधान जान, हानि, लाभ सहिये, जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि रहिये …,  कौन कहता तू है काली हे मां जगदम्बे, लाखों रवि चंद्र तेरी काया से हैं चमकते …, मुकुन्द माधव गोविन्द बोल, केशव माधव हरि हरि बोल …