राम को छोड़ो, तुम अगर रावण भी बन जाते तो…
अरे राम को छोड़ो, तुम अगर रावण भी बन जाते, तो देश का कल्याण हो जाता, पर अफसोस की तुम रावण भी नहीं बन सकें। तुम हर साल रावण को जलाते हो, पर रावण को जलाने के पूर्व, यह भी नहीं सोचते कि रावण कौन था? क्या था? अगर ये जानने की कोशिश करते अथवा चिन्तन करते, तो तुम्हें पता चलता कि तुम रावण के आस-पास भी नहीं भटकते, तुम तो रावण से भी बहुत नीचे गिरे गये, भला तुम्हें रावण दहन करने की इजाजत किसने दे दी?
जानते हो, ये वहीं रावण है, जिस रावण के नाम से भगवान शिव वैद्यनाथधाम में रावणेश्वर के नाम से जाने जाते है। रावण की शिवभक्ति पर भला कौन प्रश्नचिह्न लगा सकता है? रावण के नाम से जाने-जानेवाले भगवान शिव के इस इलाके में रावण का दहन होना, अपने आप में आश्चर्यजनक है। हमें याद है कि एक बार झारखण्ड में शिबू सोरेन जब मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने रावण दहन करने से इनकार कर दिया था, तब इस पर कई लोगों ने आश्चर्य प्रकट किया था, पर सत्य तो सत्य है, इससे कौन इनकार कर सकता है?
त्रेतायुग के इस रावण में विद्वता कुट-कुट कर भर थी, तभी तो एक कथा प्रचलित है कि रावण के मरने के समय स्वयं भगवान राम ने लक्ष्मण को उनके पास ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा था। ऐसे भी हमारे धर्मशास्त्रों में कहा गया हैं कि, ऐसे व्यक्ति के लिए, जिसके मृतशरीर का अंतिम समय में दाहसंस्कार हो चुका है, उसका पुतला दहन करना धर्मोचित नहीं हैं। यहीं नहीं, हमारे यहां तो उनके भी पूजन का विधान है, जिनके कारण भगवान को अवतरित होना पड़ा हैं। जैसे महिषासुर का ही ले लीजिये। जो लोग दुर्गासप्तशती पढ़ते हैं या दुर्गा पूजा मनाते हैं। वे जानते है कि दुर्गापूजा के दौरान महिषासुर के पूजन का भी विधान है, न कि उसे अपमानित करने या उसमें दोष ढुंढने का विधान।
यहीं नहीं भगवान कृष्ण ने कंस को मारा पर कोई बताये कि कंस का पुतला कब और कहां जलाया जाता है? अरे मथुरा के उस स्थल पर जाइये, जो स्थल आज कंस का कारागार बताया जाता है, वहां भी आप जायेंगे तो पायेंगे कि कंस को लोग दूसरी नजरों से देखते हैं तथा कह डालते है “धन्य कंस का कारागार, हरि ने लिया जहां अवतार” अर्थात् धन्य हैं कंस का वह जेल, जहां भगवान ने अवतार लिया और यह कहते हुए, उस धरती पर शीश नवाते हैं, धरती को चूमते हैं।
ऐसे भी सभ्य समाज में किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति का पुतला दहन करना सहीं नहीं माना जाता है, पर यहां देखा जाता है कि विभिन्न दलों के लोग एक दूसरे का घुर विरोधी होने के कारण, एक दूसरे के नेता का पुतला फूंक देते हैं। मैं तो कहता हूं कि रावण का पुतला फूंकने वाले बताएं कि क्या उनके अंदर राम की दिव्यता, मर्यादा, सत्य आचरण, प्रजापालन, धर्मानुसार आचरण करने की क्षमता हैं, अगर नहीं तो फिर रावण दहन करने का अधिकार उन्हें किसने दे दिया?
जब आप स्वयं नाना प्रकार के दोषों से भरे हुए हो और आप उस व्यक्ति का पुतला दहन कर रहे हो, जो आपसे कई मामलों में श्रेष्ठ हैं, क्या ऐसा करना सहीं है? आप जरा स्वयं उस रावण को देखो, जो अपनी बहन के लिए सब कुछ दांव पर लगा देता है। यहीं नहीं, वह सीता का अपहरण करता है, पर सीता को अपने रनिवास में न ले जाकर, अशोकवाटिका में रखता है। वह बाहुबल से सीता का अपहरण अवश्य करता है, पर बिना सहमति के सीता को पाने से भी परहेज करता है। ये अवश्य याद रखे, राम ने अपने पुरुषार्थ व बल से सीता को जरुर पा लिया, पर सीता रावण की लंका में रहने के बावजूद पवित्र थी, इसके लिए रावण की भी प्रशंसा करनी ही होगी।
विजयादशमी के दिन, रावण दहन ज्यादा जरुरी है, कि राम के आदर्शों पर चलने का संकल्प लेते हुए, राम जैसे बनने की आवश्यकता है। हमें मालूम होना चाहिए कि हमारे देश के कई संतों ने राम को पाने के लिए, राम में ही समा जाने के लिए अनेक साधनाएं की, अपना जीवन खपा दिया, पर रावण को जलाने में ज्यादा दिमाग नहीं खपाया। जो आजकल के युग में चल पड़ा है। जरा देखिये –
तुलसी के राम क्या कह रहे हैं – “नाना भांति राम अवतारा। रामायण सत कोटि अपारा”।। जरा कबीर को देखिये – “कस्तूरि कुंडलि बसे, मृग ढूढै बनमाहि। ऐसे घटि घटि राम है, दुनिया देखे नाहि।।” कहने का तात्पर्य है कि आज के दिन रावण का पुतला जलाने से अच्छा है कि आप अपने अंदर की बुराइयों को जला डालिए और फिर राम नामक दीपक से स्वयं को इस प्रकार प्रकाशित कर दीजिये कि विजयादशमी का अर्थ ही बदल जाये। कहा गया है – आत्मदीपो भव। स्वयं को प्रकाशित करिये, तभी विजयादशमी के पर्व की सकारात्मकता दीखेगी।
एक दौड़ चल रहा है,
चलो देखें,रावण जल रहा है.उसे मारा किसने , कहाँ कब मरा वह?
इसका न जिक्र न पता ,
न हीं कोई खबर चल रहा है.. !!
जीत रहा दश,
दश हारा कहे सब.
खेल न जाने ये कबसे
चल रहा है.!
इधर रावण मचल रहा है उधर पुतला जल रहा है॥