अपनी बात

तुम मुझे खुश रखो, हम तुम्हें खुश रखेंगे, मतलब तुम मुझे माल दो, हम तुम्हें अपने अखबार में स्थान देंगे, अगर तुम्हारे पास माल नहीं हैं तो तुम्हारी समाचार से हमें क्या लेना-देना?

अपना झारखण्ड बदल रहा है। झारखण्ड के अखबार भी बदल रहे हैं। बदलेंगे क्यों नहीं। परिवर्तन तो संसार का नियम है। झारखण्ड के अखबारों ने अपने में यह बदलाव किया है कि वे अब उन्हीं समाचारों को प्रमुखता से छाप रहे हैं। जिन समाचारों से उन्हें माल मिलने की प्रबल संभावनाएं होती है। जिन समाचारों से माल नहीं मिलनी है। बल्कि उलटे माल का नुकसान हो जानेवाला है, चाहे वो सत्य से ही प्रेरित क्यों न हो। अब के अखबार उसे स्थान नहीं देते।

नतीजा गिरावट इतना हो चला है कि अब अखबार की कोई इज्जत ही नहीं और जब अखबार की इज्जत नहीं तो वहां काम करनेवाले संवाददाताओं, उप-संपादकों, कार्यकारी संपादकों, स्थानीय संपादकों, प्रधान संपादकों, प्रबंधकों की क्या इज्जत होती होगी। आप समझ सकते हैं। आज से तीस-चालीस साल पहले तक ये स्थिति नहीं थी। अगर होगी भी तो ये बड़े-बड़े महानगरों में कहीं दिखाई देती होगी। लेकिन अब तो इस प्रकार की बीमारियां रांची में सामान्य हो गई है।

स्थिति ऐसी हो गई है कि जो माल दे रहा है, उसका समाचार छप रहा है, जो माल नहीं दे रहा वो अमीर रहे या गरीब उससे इन्हें कोई मतलब नहीं है, मतलब इस हाथ माल दो और उस हाथ समाचार छपवाओ। शायद, ये यह कहना चाहते हो कि गरीबी-ईमानदारी का ठेका इन्होंने थोड़े ही ले रखा है। उदाहरण आपके सामने हैं –

10 मार्च को रांची के हरमू मैदान में पिछड़ा वर्ग एकता अधिकार मंच का कार्यक्रम था। इसके केन्द्रीय अध्यक्ष ब्रह्मदेव प्रसाद ने प्रमंडलीय महासम्मेलन का आयोजन किया था। आयोजकों ने अखबारों पर जमकर विज्ञापन के नाम पर पैसे बरसाये। नतीजा 11 मार्च को रांची के अखबारों ने इनके समाचारों को प्रमुखता से छापा। उदाहरण के लिए उनके द्वारा प्रभात खबर अखबार को 11 मार्च को दिया गया विज्ञापन और प्रभात खबर अखबार द्वारा 11 मार्च को ही पृष्ठ संख्या सात पर प्रकाशित समाचार हमने आपके सामने प्रस्तुत कर दिया है। आप खुद अवलोकन करें।

दूसरी घटना धनबाद के बाघमारा का भाजपा विधायक ढुलू महतो, जिसके अपराध से पूरा धनबाद कांपता है। उसके अपराधिक प्रवृत्ति से घबराकर चिटाही गांव के लोग धनबाद के रणधीर वर्मा चौक पर इसी साल 27 फरवरी को धरने पर बैठ गये। जब धनबाद के लोगों ने 28 फरवरी को धनबाद से प्रकाशित प्रभात खबर का अवलोकन किया तो पता चला कि उक्त समाचार को इस अखबार ने स्थान ही नहीं दिया। जब धनबाद के कई लोगों ने प्रभात खबर के संपादक को इस बात के लिए झकझोरा, तब जाकर इन्हें शर्म आई और 29 फरवरी को चार लाइन में इस समाचार को छापकर अपने पाप को धोने का असफल प्रयास किया।

इसी दिन इस अखबार ने ढुलू महतो द्वारा दिया गया फुल पेज का विज्ञापन भी छापा और ढुलू महतो नाराज न हो, इसका विशेष ख्याल रखा जबकि चिटाही गांव के प्रदर्शनकारियों की खबर को चार लाइन में छापकर अपना पिंड छुड़ा लिया। धनबाद के वरीय समाजसेवी विजय झा विद्रोही24 को बताते है कि उन्होंने उक्त समाचार को नहीं छापने पर धनबाद के प्रभात खबर के रिपोर्टरों को खूब खरी-खोटी सुनाई थी। कहा था कि जब ढुलू महतो की आरती ही उतारनी हैं, उसके खिलाफ कुछ छापना ही नहीं हैं, सत्य को स्थान देना ही नहीं हैं तो अपने अखबार में यह क्यों छापते हो कि अखबार नहीं आंदोलन, लिखा करो- अखबार नहीं समझौता।

विजय झा बताते है कि 28 फरवरी को ही उन्होंने प्रभात खबर छोड़कर धनबाद से निकलनेवाले सारे अखबारों की कटिंग की छाया प्रति उन्होंने धनबाद के संपादक को व्हाटसएप्प से भेजी थी। शायद हो सकता है कि उन्हें इसे देखकर शर्म आया हो और उन्होंने अपने अखबार में 29 अखबार को चार लाइन की खबर छापकर अपना पिंड छुड़ा लिया। विजय झा बताते है कि चिटाही के लोग आज भी धनबाद के रणधीर वर्मा चौक पर बैठे हैं। भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह ने इस मुद्दे को विधानसभा के शून्यकाल में भी उठाया था।

और अब 12 मार्च रांची की घटना। राष्ट्रीय युवा शक्ति के कार्यकर्ता भगत सिंह की प्रतिमा को रांची में स्थान मिले। इसके लिए आंदोलनरत हैं। कल इन युवाओं ने सांकेतिक तौर पर रांची बंद बुलाया था। जिसका रांची के कुछ इलाकों में अच्छा प्रभाव दिखा। कई व्यवसायिक प्रतिष्ठान बंद रखे। लेकिन रांची से प्रकाशित प्रमुख अखबारों ने इन युवाओं के रांची बंद से संबंधित समाचारों से ऐसी कन्नी काटी, जैसे लगा कि 12 मार्च को रांची में कुछ हुआ ही नहीं। जबकि सच्चाई यही है कि कल 12 मार्च को रांची बंद हुआ था, जिसकी खबरें रांची से प्रकाशित होनेवाली छोटी-छोटी अखबारों जैसे फ्रीडम फाइटर, पंच और आजाद सिपाही जैसी अखबारों ने फोटो सहित छापी।

सवाल उठता है कि क्या अब समाचार उनकी छपेगी, जिनके पास माल होगा और अगर ऐसा है तो फिर ऐसे अखबारों का क्या औचित्य? जब माल पर ही समाचार छपेंगे तो फिर सरकारें इन्हें सस्ती दरों पर कागज क्यों मुहैया कराती है। ये बंद होना चाहिए। इन पर करोड़ों रुपये के विज्ञापन क्यों खर्च करती है। क्या इन पर होनेवाले विज्ञापन पर खर्च के पैसे आम जनता के टैक्सों से आये हुए नहीं होते। जब ये निचली स्तर पर उतरने को उतारु हो जाये, तो फिर राज्य सरकार व केन्द्र सरकार का भी धर्म बन जाता है कि कुछ ऐसे तरीके अपनाएं, जिससे सत्य की रक्षा हो सकें। आखिर इनके यहां काम करनेवाले पत्रकारों की टीम किस मुंह से सरकार के पास जाकर अपने लिए पेंशन और अन्य सुविधाओं की मांग करती है, जब वो जनहित के मुद्दे ही नहीं उठाती।