तू डाल-डाल हम पात-पात, आप ईडी का तीर चलाइयेगा, हमारे पास भी अनेक तीर हैं, अभी सरना धर्म का तीर झेलिये, मतलब मेरे पत्र का जवाब दीजिये, बाद में और भी झेलायेंगे
अगर आप हमें चैन से नहीं बैठने देंगे तो हम भी आपको इतना आराम से नहीं बैठने देंगे। कम से कम झारखण्ड की 14 लोकसभा सीटों पर तो इस बार इतना आसानी से कब्जा नहीं ही करने देंगे, क्योंकि हम भी हेमन्त सोरेन ऐसे ही नहीं हैं। शायद यही कारण है कि राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने बड़े ही प्रेम से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक पत्र लिखा है। पत्र में उन्होंने बड़े ही प्रेम से आदिवासी समुदाय के समेकित विकास के लिए पृथक आदिवासी/सरना धर्मकोड का प्रावधान करने का अनुरोध किया है।
उन्होंने पत्र में लिखा है कि हम आदिवासी समाज के लोग प्राचीन परम्पराओं एवं प्रकृति के उपासक हैं तथा पेड़ों, पहाड़ों की पूजा और जंगलों को संरक्षण देने को ही अपना धर्म मानते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग 12 करोड़ आदिवासी निवास करते हैं। झारखण्ड प्रदेश जिसका मैं प्रतिनिधित्व करता हूं, एक आदिवासी बहुल राज्य है, जहां इनकी संख्या एक करोड़ से भी अधिक है। झारखण्ड की बड़ी आबादी सरना धर्म को माननेवाली है। इस प्राचीनतम सरना धर्म का जीता जागता ग्रंथ स्वयं जंगल, जमीन एवं प्रकृति है। सरना धर्म की संस्कृति, पूजा पद्धति, आदर्श व मान्यताएं प्रचलित सभी धर्मों से अलग है।
पत्र में हेमन्त सोरेन ने यह भी लिखा है कि झारखण्ड ही नहीं, अपितु पूरे देश का आदिवासी समुदाय पिछले कई वर्षों से अपने धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए जनगणना कोड में प्रकृति पूजक आदिवासी/सरना धर्मावलम्बियों को शामिल करने की मांग को लेकर संघर्षरत है। प्रकृति पर आधारित आदिवासियों के पारंपरिक धार्मिक अस्तित्व की रक्षा की चिंता निश्चित तौर पर एक गंभीर सवाल है। आज आदिवासी/सरना धर्म कोड की मांग इसलिए उठ रही है ताकि प्रकृति का उपासक यह आदिवासी समुदाय अपनी पहचान के प्रति आश्वस्त हो सके।
वर्तमान में जब समान नागरिक संहिता की मांग कतिपय संगठनों द्वारा उठाई जा रही है, तो आदिवासी/सरना समुदाय की इस मांग पर सकारात्मक पहल उनके संरक्षण के लिए नितांत ही आवश्यक है। आप अवगत है कि आदिवासी समुदाय में भी कई ऐसे समूह है जो विलुप्ति के कगार पर है एवं सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर इनका संरक्षण नहीं किया गया तो इनकी भाषा, संस्कृति के साथ-साथ इनका अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा।
मुख्यमंत्री ने आगे लिखा है कि विगत आठ दशकों में झारखण्ड के आदिवासियों की जनसंख्या के क्रमिक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इनकी जनसंख्या का प्रतिशत झारखण्ड में घटकर 26 प्रतिशत ही रह गया है। इनकी जनसंख्या के प्रतिशत में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है, जिसके फलस्वरुप संविधान की पांचवी एवं छठी अनुसूची के अंतर्गत आदिवासी की विकास नीतियों में प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
हेमन्त सोरेन ने यह भी लिखा है कि उपरोक्त परिस्थितियों के मद्देनजर हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, जैन धर्मावलम्बियों से अलग सरना अथवा प्रकृति पूजक आदिवासियों की पहचान के लिए तथा उनके संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण के लिए अलग आदिवासी/सरना कोड अत्यावश्यक है। अगर यह कोड मिल जाता है तो इनकी जनसंख्या का स्पष्ट आकलन हो सकेगा एवं तत्पश्चात हम आदिवासियों की भाषा, संस्कृति, इतिहास का संवर्द्धन एवं संरक्षण हो पायेगा तथा हमारे संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जा सकेगी।
यहां उल्लेखनीय है कि वर्ष 1951 के जनगणना के कॉलम में इनके लिए अलग कोड की व्यवस्था थी परन्तु कतिपय कारणों से बाद के दशकों में यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई। अतः आदिवासी/सरना कोड आदिवासी समुदाय के समुचित विकास के लिए अत्यंत ही आवश्यक है एवं इसके मद्देनजर झारखण्ड विधानसभा से इस निमित्त प्रस्ताव भी पारित कराया गया है, जो वर्तमान में केन्द्र सरकार के स्तर पर निर्णय हेतु लंबित है।
मुख्यमंत्री ने यह भी लिखा है कि मुझे अपने आदिवासी होने का गर्व है और एक आदिवासी मुख्यमंत्री होने के नाते मैं ना सिर्फ झारखण्ड, बल्कि पूरे देश के आदिवासियों के हित में आपसे विनम्र आग्रह करता हूं कि हम आदिवासियों की इस आदिवासी/सरना धर्म कोड की चिरप्रतीक्षित मांग पर यथाशीघ्र सकारात्मक निर्णय लेने की कृपा करें। आज पूरा विश्व बढ़ते प्रदूषण एवं पर्यावरण की रक्षा को लेकर चिन्तित है, वैसे समय में जिस धर्म की आत्मा ही प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा है उसको मान्यता मिलने से भारत ही नहीं पूरे विश्व में प्रकृति प्रेम का संदेश फैलेगा।